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आयुर्वेद बनाम एलोपैथी की बहस के पीछे अलग-अलग समूहों के वाणिज्यिक हित : विहिप अध्यक्ष


इंदौर (मध्य प्रदेश) विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु सदाशिव कोकजे ने रविवार को कहा कि उन्हें आयुर्वेद बनाम एलोपैथी की मौजूदा बहस के पीछे अलग-अलग समूहों के वाणिज्यिक हित प्रतीत होते हैं।

उन्होंने यह भी कहा कि बेसिर-पैर की बातों के स्थान पर वैज्ञानिक रूप से रचनात्मक चर्चा होनी चाहिए कि कोविड-19 के मरीजों पर दोनों चिकित्सा पद्धतियों के किस तरह के प्रभाव सामने आए हैं?

विहिप अध्यक्ष ने यह टिप्पणी ऐसे वक्त की है, जब एलोपैथी के खिलाफ योग गुरु रामदेव की कथित टिप्पणियों से आधुनिक चिकित्सा पद्धति के पेशेवरों में काफी गुस्सा दिखाई दे रहा है।

कोकजे ने “पीटीआई-भाषा” से कहा, “मुझे तो आयुर्वेद बनाम एलोपैथी की वर्तमान बहस के पीछे अलग-अलग समूहों के वाणिज्यिक हितों की लड़ाई लगती है। यह कोई वैज्ञानिक बहस नहीं है।”

कोकजे, मध्यप्रदेश और राजस्थान के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश रह चुके हैं। उन्होंने कहा, “वैज्ञानिक आधार पर रचनात्मक चर्चा होनी चाहिए कि महामारी के मरीजों पर आयुर्वेद और एलोपैथी का क्या असर हुआ है? दोनों चिकित्सा पद्धतियों के प्रतिनिधियों को इस बारे में सर्वेक्षण कर आंकड़े जारी करने चाहिए। इस विषय में बेसिर-पैर की बातों का कोई मतलब नहीं है।”

कोकजे ने कहा कि किसी मरीज को वही चिकित्सा पद्धति अच्छी लगती है जो उसे रोगमुक्त कर देती है, इसलिए आयुर्वेद बनाम एलोपैथी को लेकर बेसिर-पैर की बातों का कोई भी मतलब नहीं है।

विहिप अध्यक्ष ने कहा कि देश में सबसे बड़ा बुनियादी ढांचा एलोपैथी का है और ऐसे में इस चिकित्सा पद्धति से पूरी तरह दूरी बनाना मुमकिन नहीं है। उन्होंने कहा, “.लेकिन ऐसा लग रहा है कि एलोपैथी की दवा कम्पनियों, डॉक्टरों और अन्य लोगों को खतरा महसूस होने लगा है कि कहीं उनका वर्चस्व कम न हो जाए।”

कोकजे ने जोर देकर कहा कि एलोपैथी के जानकारों को इस चिकित्सा पद्धति की दवाओं के “साइड इफेक्ट की सबसे बड़ी कमी” दूर करनी चाहिए और उन्हें आयुर्वेद के खिलाफ “जबरन प्रचार” करने से कुछ भी नहीं मिलने वाला है।

विहिप अध्यक्ष ने दावा किया कि मरीजों पर आयुर्वेदिक दवाओं के “साइड इफेक्ट” नहीं होते क्योंकि ये औषधियां प्राकृतिक तत्वों से बनी होती हैं। उन्होंने कहा, “हमें आयुर्वेद की उस प्राचीन विद्या को फिर से स्थापित करने के प्रयास करने चाहिए जो हमने हजारों वर्षों की गुलामी के कारण खो दी है। इसके लिए आयुर्वेदिक अनुसंधान पर जोर देते हुए हमें वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना होगा कि यह पद्धति किसी रोग के इलाज में कितनी कारगर है।”