पटना, बिहार की जमीन राजनीतिक रूप से उर्वर रही है। इस जमीन ने समाजवादी विचारों से जुड़े शरद यादव को भी पहचान दिलाई। मूलरूप से मध्य प्रदेश में जन्में शरद यादव खुद कभी किंग नहीं बने, लेकिन बिहार के संदर्भ में देखें तो वे किंग मेकर की भूमिका में कई बार रहे। राजनीतिक जोड़-तोड़ के माहिर खिलाड़ी शरद यादव को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का राजनीतिक गुरु माना जाता है। लालू यादव का राजनीतिक करियर बनाने में भी उन्होंने अहम भूमिका निभाई। लालू-नीतीश के साथ उनकी दोस्ती और फिर दूरी के किस्से बिहार से लेकर लेकर केंद्र तक की राजनीतिक गलियारों में मशहूर हैं।
एक जुलाई 1947 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद के एक गांव के किसान परिवार में जन्मे शरद यादव ने बिहार के अतिरिक्त मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय समाजवादी नेताओं में अग्रणी थे। कालेज के दिनों से ही राजनीति में सक्रिय हो गए थे। शरद समाजवादी राजनीति के पुरोधा नेताओं में शामिल रहे हैं। उन्होंने पांच दशक से भी ज्यादा समय तक बेबाक और सक्रिय रहकर केंद्रीय राजनीति की। खासकर बिहार की राजनीति में उनकी विशिष्ट पहचान थी और जनता के बीच लोकप्रिय भी थे। शरद मुलायम सिंह यादव और जॉर्ज फर्नांडीस जैसे समाजवादी नेताओं के समानांतर समाजवादी खेमे के एक प्रमुख नेता थे।
मध्य प्रदेश के जबलपुर से पहली बार बने सांसद
1971 में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान जबलपुर मध्यप्रदेश में शरद यादव छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए। 70 के दशक में कांग्रेस विरोधी आंदोलन के दौरान उनके राजनीतिक करियर का उदय हुआ। वर्ष 1974 में शरद यादव का राजनीति कद तब बढ़ गया, जब वे चौधरी चरण सिंह की भारतीय लोक दल पार्टी की ओर से विपक्ष के उम्मीदवार के तौर पर मध्य प्रदेश के जबलपुर में लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस को मात दी। 1977 में उन्होंने दूसरी बार इस सीट से जीत दर्ज की।
नीतीश कुमार और मुलायम सिंह यादव से है पुराने संबंध
1977 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मुकाबला करने के लिए भारत के प्रमुख राजनैतिक दलों का विलय हुआ और एक नए दल जनता पार्टी का गठन किया गया। 1977 में कांग्रेस पार्टी को हराकर जनता पार्टी ने केंद्र में सरकार बनाई। हालांकि, आंतरिक मतभेदों के कारण जनता पार्टी 1980 में टूट गई और चौधरी चरण सिंह उससे अलग हो गए। इसके बाद उन्होंने अलग पार्टी बनाई उसका नाम ‘लोकदल’ था। एक समय में नीतीश कुमार, बीजू पटनायक, शरद यादव और मुलायम सिंह यादव भी इसी लोक दल के नेता होते थे।
मुलायम से नजदीकी से यूपी में हुई एंट्री
1980 में आम चुनाव में शरद यादव के हाथ से जबलपुर सीट निकल गई। इसके बाद मुलायम सिंह यादव के साथ उनके संबंध घनिष्ठ हो गए। मुलायम सिंह की मदद से शरद यादव की एंट्री उत्तर प्रदेश की राजनीति में हुई। 1986 में शरद यादव लोक दल के राज्यसभा सदस्य बने और फिर 1989 के लोकसभा चुनाव में यूपी के बदायूं सीट से सांसद बने। हालांकि, दोनों नेताओं की दोस्ती ज्यादा दिन नहीं चली और जल्द ही शरद यादव ने उनसे भी दूरी बना ली। साल 1988 में शरद यादव ने वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल (JD) नाम से नई पार्टी शुरू की। इसके बाद वीपी सिंह 1989-90 के बीत अल्प समय के लिए प्रधानमंत्री बने, तो शरद यादव कपड़ा और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय के प्रमुख के तौर पर केंद्रीय मंत्री बने।
लालू को सीएम की कुर्सी तक पहुंचाने में की मदद
इधर, शरद यादव के अनुयायी लालू यादव का कद बिहार की राजनीति में बढ़ रहा था। माना जाता है कि शरद यादव के प्रयासों से ही लालू प्रसाद बिहार की सत्ता के शीर्ष पर पहुंच पाए थे। कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद शरद ने पहले तो लालू को बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाने में आगे बढ़कर सहयोग किया, फिर 1990 में कांग्रेस के पराभव के बाद खंडित जनादेश के बीच लालू को मुख्यमंत्री बनाने के लिए भी फील्ड सजाई।
लालू के लिए कई बार संकट मोचक बने शरद
लालू ने शरद यादव के सहारे भाजपा के सहयोग से बिहार में सरकार बनाई। उस वक्त जनता दल में तीन खेमे थे। पहला खेमा के मुखिया तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह थे। दूसरा खेमा चंद्रशेखर का था और तीसरे खेमे को देवीलाल और शरद यादव मिलकर संभाल रहे थे। बिहार में देवीलाल के मुख्यमंत्री प्रत्याशी लालू थे। वीपी सिंह के रामसुंदर दास और चंद्रशेखर के रघुनाथ झा थे। देवीलाल के लेफ्टिनेंट के रूप में शरद यादव ने ही लालू को आगे बढ़ाया।
हालांकि, लालू की मुश्किल तक बढ़ गई जब सात महीने बाद ही लालकृष्ण आडवाणी गिरफ्तार हो गए और लालू की सरकार को भाजपा से समर्थन वापस लेना पड़ा। उस वक्त भी शरद फिर संकट मोचक बनकर लालू के सामने आए और झामुमो और वामदलों के सहयोग से बिहार में लालू की सरकार बचाने की पहल की।
सीएम बनने पर लालू यादव ने शरद यादव को बनाया सांसद
आगे चलकर बिहार में समाजवादी राजनीति दो धाराओं में बंट गई। एक का नेतृत्व शरद यादव के हाथ रहा तो दूसरे धड़े का नेतृत्व लालू ने किया। इस दौरान शरद ने नीतीश कुमार और जार्ज फर्नांडिस को साथ लेकर कई अवसरों पर देश की राजनीति को गहरे रूप से प्रभावित किया। 1991 के लोकसभा चुनावों के दौरान लालू यादव ने शरद यादव को मधेपुरा से जनता दल के उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतारा। बिहार और खासकर मधेपुरा ने उन्हें सिर आंखों पर बिठाया। यही वजह रही कि 1991 से 2019 तक हुए लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक चार बार वे मधेपुरा से जीतकर आए। सबसे रोचक चुनाव 1999 में हुआ। तब मधेपुरा में शरद यादव और लालू प्रसाद यादव आमने-सामने थे।
शरद यादव को अध्यक्ष बनाने से नाराज हुए लालू
दरअसल, 1996 में चारा घोटाला मामले में लालू प्रसाद यादव को सजा हो गई थी। इसके बाद उन्होंने राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। लालू प्रसाद तब जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष हुआ करते थे। पार्टी में उनका विरोध भी हुआ था। अगले वर्ष पार्टी का चुनाव होना था। इस चुनाव में शरद यादव ने पार्टी के अध्यक्ष पद की दावेदारी की थी। लालू प्रसाद इससे सहमत नहीं थे, लेकिन तब जनता दल में रहे एचडी देवगौड़ा और रामविलास पासवान सहित कई नेताओं ने शरद यादव को अपना समर्थन दिया था। शरद पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव जीत गए। इसके बाद लालू प्रसाद यादव ने जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल बना लिया।
लालू के खिलाफ धरने पर बैठ गए थे शरद यादव
यह वह बिंदू था, जिसने मित्र रहे दो-दो दिग्गजों को राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बना दिया। 1999 के चुनाव में लालू यादव और शरद यादव के बीच सीधा मुकाबला था। तब यह नारा चल निकला था कि रोम पोप का और मधेपुरा गोप का। चुनाव में धांधली का आरोप लगाकर शरद यादव बीएन मंडल स्टेडियम में धरने पर भी बैठ गए थे। हालांकि, मतगणना पूरी हुई तो परिणाम उनकी जीत हुआ और लालू यादव को हार सामना करना पड़ा। अपनी जन्मभूमि मध्य प्रदेश की राजनीतिक जमीन छोड़ आखिर शरद यादव बिहार क्यों आए यह प्रश्न बार-बार उठता रहा।
एक साक्षात्कार के दौरान खुद शरद यादव ने कहा था कि मध्य प्रदेश के सामाजिक परिवेश में उनकी राजनीतिक यात्रा मुश्किल भरी होती। इसलिए जबलपुर छोड़कर उन्होंने उत्तर प्रदेश की राह पकड़ी और फिर वहां से बिहार का रुख किया। शरद यादव भारत के पहले ऐसे राजनेता माने जाते हैं जो तीन राज्यों मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार से लोकसभा सदस्य के तौर पर चुने गए थे।