तीन दिन पहले महाराष्ट्र में भाजपा विधायक दल के नेता देवेंद्र फडणवीस ने दिल्ली आकर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से लंबी मंत्रणा की थी। उस बैठक में हर पहलू पर चर्चा हुई थी और यह आगाह भी किया गया था कि भाजपा पर कोई खरोंच नहीं आनी चाहिए। एकनाथ शिंदे के हाथ कमान देकर सार्वजनिक रूप से यह स्थापित कर दिया गया है कि महाराष्ट्र में जो भी उठापटक चल रही थी, वह शिवसेना के अंदर की थी।
स्थिरता और राष्ट्रवादी विचारधारा के लिए भाजपा ने सिर्फ मदद की है। इस तरह जहां भाजपा किसी कलंक से बची, वहीं शिवसैनिक के हाथ कमान देकर बालासाहब ठाकरे की विरासत को भी संभाल कर रखा गया है। पार्टी के अंदर जिस तरह शिंदे ने बागी विधायकों को संभाल कर रखा, उससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद संगठन में भी बड़ी टूट होगी और कार्यकर्ता एकनाथ की ओर आएंगे। ऐसी स्थिति में शिवसेना पर औपचारिक दावे की लड़ाई तेज होगी तो वंश के नाम पर शिवसेना पर कब्जा जमाए बैठे ठाकरे परिवार के लिए मुश्किल खड़ी होगी। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यही भाजपा की जीत और बड़ी उपलब्धि है।
ठाकरे के रहते भाजपा शिवसेना के साये में रही बालासाहब ठाकरे के रहते हुए भाजपा अपनी क्षमताओं के बावजूद छोटी बहन बनकर रह रही थी। उसके बाद से आंतरिक खींचतान शुरू हुई थी लेकिन खुलकर मैदान तब सजा था जब केंद्र में नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने और संगठन में अमित शाह राष्ट्रीय अध्यक्ष। उनके नेतृत्व में ही 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने सीटों पर आधे-आधे के हिस्से की बात की थी। तब शिवसेना का गुरूर था। लिहाजा रिश्ता टूटा और भाजपा शिवसेना के मुकाबले कहीं ज्यादा सीट जीतकर आईं थीं और महाराष्ट्र में पहली बार भाजपा का कोई मुख्यमंत्री बना था। हालांकि सरकार गठन में दोनों साथ थे लेकिन तनाव बरकरार था।
बीएमसी चुनाव में हुए अलग
यही कारण था कि 2017 के बीएमसी चुनाव से फिर दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा और भाजपा शिवसेना से सिर्फ दो सीट पीछे थी। ध्यान देने की बात है कि उसके पहले जब दोनों साथ साथ लड़े थे, भाजपा शिवसेना के लगभग आधी सीटों पर थी। यानी भाजपा के विस्तार के लिए शिवसेना सहायक कम, अवरोधक ज्यादा साबित होती रही है।