नई दिल्ली, । पांच राज्यों की मतगणना के बाद जहां भाजपा चार राज्यों में बनाने की ओर है, वहीं कांग्रेस इन राज्यों में दमदार विपक्ष साबित होने में असफल साबित हुई है। गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर जैसै राज्यों में भी कांग्रेस एंटी-इनकम्बैंसी को भुनाने में असफल साबित हुई है। लोगों के बीच कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर उम्मीद का किरण बनने में नाकाम है। ऐसे में कांग्रेस में अंदरूनी हलचल के साथ पार्टी की दशा-दिशा को लेकर सवालों के सुर एक बार फिर तेज होने के संकेत हैं। चुनाव दर चुनाव पार्टी की गंभीर होती चुनौती को देखते हुए कांग्रेस के असंतुष्ट जी 23 समूह के नेताओं की ओर से मुखर आवाज उठाने की तैयारी शुरू कर दी है। ऐसे में अब गांधी परिवार पर सवाल उठना लाजिमी है। हो सकता है कि कई और नेता पार्टी छोड़ने की ओर बढ़ सकते हैं।
कांग्रेस के लिए पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा जैसे राज्यों में सत्ता हासिल करने का मौका छिन गया है बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के विपक्षी विकल्प बने रहने पर भी सवाल उठ रहे हैं। इस चिंता के जरिए असंतुष्ट खेमे के नेता यह संकेत दे रहा हैं कि पार्टी हाईकमान की ओर से बार-बार दिए जा रहे आश्वासनों के बाद भी कांग्रेस की सियासी मुश्किलें कम नहीं हो रही है। उल्टे पार्टी की राजनीतिक जमीन लगातार सिकुड़ रही है और ऐसे में पांच राज्यों के चुनाव में नतीजे अनुकूल नहीं हैं तो पार्टी की हालत को लेकर नेतृत्व पर बड़े और निर्णायक सवाल उठ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी को खुली छूट मिलने के बाद भी न सिर्फ पार्टी का वोट प्रतिशत घटा है, बल्कि सीटें भी घटी हैं।
पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाने के बाद प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए नवजोत सिंह सिद्धू के इस्तीफा देने से हुई किरकिरी को लेकर असंतुष्ट खेमे ने उसी समय सवाल उठाए थे। इसी तरह हरीश रावत को उत्तराखंड में चुनाव की जिम्मेदारी देने के बाद भी उन्हें खुली छूट नहीं देने का विवाद भी असंतुष्ट नेताओं की नजर में है।
पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कांग्रेस को सत्ता मिलने की उम्मीद के बीच जी 23 के नेता चुनाव अभियान के दौरान न केवल चुप रहे बल्कि अपनी तरफ से ऐसे किसी विवाद को जन्म नहीं दिया जिससे पार्टी को चुनावी नुकसान हो। मगर एक्जिट पोल के अनुमानों के बाद इन नेताओं की बेचैनी बढ़ गई हे और 10 मार्च के चुनाव नतीजे इसी अनुरूप रहे तो फिर यह बेचैनी मुखर सियासी सुर में तब्दील हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।