रविवार 30 अक्टूबर 2022 को छठ पूजा का लोकपर्व, डूबते सूरज को अर्घ्य देकर अपने समापन की ओर बढ़ रहा था कि तभी शाम करीब 6.30 बजे गुजरात में, अहमदाबाद से 200 किलोमीटर दूर,मच्छू नदी के किनारे स्थित मोरबी जिला मुख्यालय में एक भयानक हादसा हो गया। नदी पर बना लगभग 140 साल पुराना केबल सस्पेंशन ब्रिज लोगों के ओवर लोड से टूट गया। पुल के टूटते ही चारों तरफ चीख-पुकार मच गयी और देखते ही देखते छठ पूजा की खुशियां मातम में बदल गयीं। पुल टूटने से करीब 400 लोग मच्छू नदी में जा गिरे। जिनमें से इन पंक्तियों के लिखे जाने तक 140 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी थी।
मृत लोगों के शव मोरबी के सिविल हॉस्पिटल में रखवा दिए गए हैं। मरने वालों में 50 से ज्यादा बच्चे और महिलाएं हैं। इस हादसे में 70 से ज्यादा लोग घायल हुए हैं, जिनका फिलहाल इलाज चल रहा है,जबकि 100 से ज्यादा लोगों की तलाश अभी भी जारी है। राजकोट के भाजपा सांसद मोहन कुंदरिया के घर इस हादसे ने सबसे ज्यादा कहर ढाया है। उनकी फैमिली के 12 लोगों की जान इस हादसे में चली गई है।
राजनीतिक पार्टियां हादसे को अपने पक्ष में भुनाने लगी
हादसा कितना भयावह था,इसका अंदाजा सोशल मीडिया में वायरल हुए कुछ वीडियो देखकर लगाया जा सकता है। वायरल वीडियोज में से एक बिलकुल ब्रिज टूटने के समय का है। इस वीडियो को देखने पर पता चलता है कि कैसे लोग अपनी जान बचाने के लिए टूटे हुए पुल को पकड़े उससे लटके हुए हैं और लोगों से मदद की गुहार लगा रहे हैं। इस भयावह हादसे के बाद कोई तैरकर बचा तो किसी को वहां पर मौजूद लोगों ने तैरकर बचाया। करीब 233 मीटर लंबे इस पुल के टूटने के प्रारंभिक कारण जो सामने आये हैं, वो हमेशा की तरह लोगों की लापरवाही और प्रशासनिक उदासीनता को ही दर्शा रहे हैं। यह अलग बात है कि चूंकि जल्द ही गुजरात में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं,इसलिए सभी राजनीतिक पार्टियां इस हादसे को भी अपने पक्ष में भुनाने पर लगी हैं। इन राजनीतिक पार्टियों और उनके कार्यकर्ताओं के लिए प्राथमिकता में पहले दुर्घटना के शिकार लोगों की मदद करना नहीं है। पहले ये अपनी राजनीति को चमकाने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं।
जबकि अगर गौर से देखा जाए तो इस पूरे हादसे में सरकार और प्रशासन के साथ साथ आम लोग या नागरिक समाज भी बराबर का दोषी है। यह पुल करीब डेढ़ सौ वर्ष पुराना था। पिछले कई महीनों से यह पुल रिपेयरिंग के लिए बंद था। पांच दिन पहले ही यानी 26 अक्टूबर 2022 को ही इसे दोबारा आम जनता के उपयोग के लिए खोला गया था। विशेषज्ञों ने इस पुल की मरम्मत के बाद भी चेतावनी दी थी कि इसे बहुत सावधानी से इस्तेमाल किया जाए। प्रशासन को भी यह बात पता थी कि यह पुल हाल में रिपेयर जरूर हुआ है लेकिन इतने पुराने पुल रिपेयर होने के बाद भी इतने मजबूत नहीं हो जाते कि बिना रोकटोक चाहे जितने लोग वहां पिकनिक मनाने के मूड में धमाचैकड़ी मचाने लगें। ऐसा नहीं है कि पुल के पास कोई चेतावनी या सावधानी नहीं लिखी गई होगी या वहां मौजूद पुलिस वालों ने लोगों से कहा नहीं होगा कि पुल पर भीड़ न करें। लेकिन जिस समय यह सस्पेंशन ब्रिज टूटकर नदी में गिरा, उस समय इसमें 400 से ज्यादा लोग सवार थे। जाहिर है इस पुराने पुल के लिए इतने लोगों का बोझा झेल पाना आसान नहीं था। क्योंकि सस्पेंशन ब्रिज जमीन में नीचे तक धंसे काॅलम या खंभों पर नहीं टिके होते कि कितना भी वजन सह लें। सस्पेंशन ब्रिज मोटे तारों के एक संतुलन पर टिके होते हैं। जबकि प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक पुल पर कुछ लोग अन्य लोगों को डराने के लिए कूद रहे थे और उसे हिलाने के लिए पुल के बड़े-बड़े तारों को खींच रहे थे, इसे भी हादसे की वजहों में से एक माना जाता है।
टोटके सुरक्षा के मामले में काम नहीं आते
सवाल है क्या प्रशासन को यह पता नहीं था कि एक पुराने पुल के साथ इस तरह का खिलवाड़ नहीं करना चाहिए, जो आम लोगों की जिंदगी को खतरे में डाले। लेकिन वहां पुलिस ऐसे आत्मघाती उदंड लोगों को सबक सिखाने के लिए मौजूद ही नहीं थी? ऐसा नहीं है कि पुलिस पुल के आसपास नहीं थी। लेकिन जिस तरह हमारा सरकारी अमला अपनी जिम्मेदारी को लेकर बेफ्रिक रहता है, वही हाल पुलिस वालों का भी होता है। उन्होंने इस पर ध्यान ही नहीं दिया। लेकिन यह बात अकेले पुलिस या प्रशासन की नहीं थी। प्रशासन ने शायद लोगों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुल का इस्तेमाल करने वालों के लिए 17 रुपये का टिकट लगा दिया था और सोच रहा था कि इन पैसों के कारण लोग पुल से दूर रहेंगे। लेकिन इस तरह के टोटके सुरक्षा के मामले में काम नहीं आते। खासकर ऐसे मौकों पर जब त्यौहार का मौसम हो और लोग अपने बच्चों को खुश रखने के लिए उन पर पैसों की बारिश करने के लिए तैयार हों। भला इस मनःस्थिति में 17 रुपये क्या मायने रखते हैं? जो वे पुल में आशंकित भीड़ कम कर सकें।
दुर्घटनाएं और नागरिक बोध
दरअसल कोई भी समाज पूरी तरह से सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं हो सकता। किसी भी समाज में एक न्यूनतम अनुशासन के लिए नागरिकबोध का होना जरूरी होता है। समाज में अनुशासन और व्यवस्था के लिए नागरिक प्रयास ही सबसे मजबूत होते हैं। लेकिन हाल के सालों में देखने को मिला है कि भारत के व्यापक नागरिक समाज में जिस तरह की बेचैनी और किसी पर भी भरोसा न करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, उसके कारण लोग आमतौर पर हर समय एक अजीब तरह के गुस्से और बेचैनी में जीते हैं। इसलिए आज भारत के समाज में कहीं पर भी नागरिक समाज का अनुशासन या उसकी देखरेख का बड़ा उदाहरण सामने नहीं आ रहा। लोग हर हादसे के लिए, हर बुरी बात के लिए, सिर्फ और सिर्फ सरकार पर जिम्मेदारी डालकर अपना पल्लू झाड़ लेते हैं, यह सही नहीं है। अगर मोरबी के इस भयावह हादसे पर गहराई से नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि यह सिर्फ पुल भर का ढहना नहीं है। यह हमारे नागरिकबोध का भी ढहना है। पुल तो फिर भी नये सिरे से बन जायेगा, नागरिकबोध इतना जल्द और नये सिरे से नहीं बनेगा।