लखनऊ, विपक्षी पार्टियां सरकार की नीयत में खोट मानकर इस मुद्दे पर आक्रोशित व हमलावर हैं और आरएसएस पर भी बैन लगाने की मांग खुलेआम हो रही है कि अगर पीएफआइ देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा है तो उस जैसे अन्य संगठनों पर भी बैन क्यों नहीं लगना चाहिए। इस ट्वीट में राजनीति भी देखी जा सकती है और छटपटाहट भी। संदेश भी देखा जा सकता है और मौके पर वार भी।
बसपा प्रमुख मायावती ने यह ट्वीट ठीक उसी दिन किया, जिस दिन पूरे देश में पीएफआइ (पापुलर फ्रंट आफ इंडिया) पर प्रतिबंध लगाया गया था और इसके राजनीतिक निहितार्थ पढ़ें तो मुस्लिम मतों को लेकर मायावती की छटपटाहट स्पष्ट देखी जा सकती है। उनके शब्द सधे हुए जरूर थे, लेकिन मंतव्य स्पष्ट था कि वह मुस्लिमों के लिए फिक्रमंद हैं और उनके लिए पीएफआइ के समर्थन की हद तक जा सकती हैं।
बसपा प्रमुख मायावती। फाइल
पीफआइ के मुद्दे को लेकर मुस्लिमों को चारा फेंका
मायावती चार बार प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, चतुर राजनीतिज्ञ हैं। वह जानती हैं कि पीएफआइ किस तरह का संगठन है और संघ से उसकी तुलना किसी भी स्तर पर नहीं की जा सकती, लेकिन राजनीतिक अवसरवादिता में उन्होंने ट्वीट करने में देरी नहीं की। पीएफआइ के पक्ष में खड़े होने से हिंदू मतों की नाराजगी का खतरा जरूर है, लेकिन फायदा इससे अधिक है। क्योंकि जाटव मतों पर बसपा का एकाधिकार अभी भी बना हुआ है।
प्रदेश के चुनाव में मुस्लिम मतदाता एक बड़ी धुरी हैं और फिलहाल समाजवादी पार्टी को अपने अधिक नजदीक पाते हैं। बीते विधानसभा चुनाव में मुस्लिमों ने सपा के पक्ष में खुलकर वोट भी किया जिसकी वजह से बसपा महज एक ही सीट पा सकी, जबकि सपा का कुनबा 111 विधायकों का हो गया। अब लोकसभा चुनाव होने हैं और मायावती को यह स्पष्ट तौर पर मालूम है कि केवल जाटव मतों से उनकी नैया आगे नहीं बढ़ सकती, उसमें मुस्लिम मतों की पतवार भी चाहिए, इसलिए उन्होंने आलोचनाओं की परवाह न करते हुए पीफआइ के मुद्दे को लेकर मुस्लिमों को चारा फेंका है।
मुस्लिम वोटों पर मायावती की निगाह
मायावती ने यह दांव चला है तो इसके पीछे उनकी सोच सपा के मुस्लिम-यादव समीकरण पर प्रहार करने की भी है। यह समीकरण मुलायम सिंह यादव ने खड़ा किया है और इसके लिए उन्हें अयोध्या में रामभक्तों पर गोलियां चलवाने में भी कोई हिचक नहीं हुई थी। इसके अलावा भी वे मुस्लिमों की हमेशा सरपरस्ती करते रहे। बीच में मुस्लिम मत सिर्फ एक बार ही सपा से 2007 में छिटका और बसपा में गया। इसी के बूते मायावती ने पूर्ण बहुमत की सरकार भी बनाई थी। लेकिन इसके बाद के चुनावों में हर बार वे मुस्लिम मतों की अपेक्षा जरूर करती रहीं, लेकिन वह सपा के ही खाते में जाता रहा, क्योंकि भाजपा के मुकाबले में सपा ही खड़ी नजर आती रही।
मायावती मुस्लिम मतों की कीमत इसलिए भी समझती हैं, क्योंकि बीते लोकसभा चुनाव में सपा से गठबंधन होने के कारण उन्हें मुस्लिम वोट मिले थे और इसके जरिये वह सीटें जीत गईं थीं। इसलिए भी मुस्लिम वोटों पर उनकी निगाह है। मायावती के लिए यह सुनहरा अवसर इसलिए भी था कि आजम प्रकरण को लेकर मुस्लिमों का एक वर्ग खुलकर सपा का विरोध भले ही न करे, लेकिन उनमें नाराजगी है। रामपुर में तो यह विरोध मुखर भी हो चुका है। इसका मुख्य कारण यह भी है कि वे मुस्लिमों के उत्पीड़न को लेकर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश से वैसे ही आक्रामक राजनीतिक प्रतिरोध की आकांक्षा रखते थे, जैसा कि मुलायम सिंह यादव करते थे, लेकिन यह अपेक्षा पूरी न हुई।
आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा उप चुनाव में सपा की हार ने भी असमंजस बढ़ाया है। ऐसे में मायावती को पीएफआइ के बहाने उनकी ओर पहल करने का अच्छा अवसर मिला। यह ट्वीट उन लोगों को भी जवाब था, जो भाजपा के प्रति नरम रुख रखने का उन पर आरोप लगाते थे। मायावती ने अपनी ओर से मुस्लिमों के बीच चारा फेंका है और यह भाजपा को भी रास आने वाला है, क्योंकि सपा के कोर वोट बैंक में विभाजन उसे ही लाभ पहुंचाएगा। वैसे मायावती ने इतने संवेदनशील मुद्दे का राजनीतिकरण करने की कोशश की है तो निश्चित तौर पर उनकी ओर से ऐसी कोशिशें और की जाएंगी।
अब मुस्लिम मतों पर इसका कितना प्रभाव पड़ता है और सपा उन्हें सहेजे रखने के लिए क्या कदम उठाती है, बहुत कुछ इस पर भी निर्भर करेगा। वैसे यह तथ्य भी अपनी जगह है कि आज के दौर का मुस्लिम पहले की अपेक्षा अधिक जागरूक है और वह भी इसके पीछे के निहित उद्देश्यों को समझता है। जहां तक पीएफआइ और संघ की तुलना करने की बात है तो यह महज राजनीतिक स्वार्थों से ही जुड़ा हुआ बयान है। मुस्लिम भी इसे समझता है।