इसमें कोई दो राय नहीं है कि देशकी राजनीतिमें उत्तर प्रदेशका विशेष स्थान है। यहां होनेवाले छोटेसे छोटे चुनाव नतीजोंको देशकी राजनीतिका मूड समझनेका पैमाना मान लिया जाता है। ये कहा जाय कि यूपी चुनावके नतीजे देशकी भावी राजनीतिकी दिशा और दशा तय करते हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पिछले दिनों उपचुनावके नतीजे घोषित हुए। देशभरकी नजरे यूपीके आजमगढ़ और रामपुर सीटोंके नतीजोंपर गढ़ी थी। आजमगढ़ सीट समाजवादी पार्टीके प्रमुख एवं पूर्व मुख्य मंत्री अखिलेश यादव और रामपुर सीट दिग्गज नेता आजम खांके इस्तीफेके बाद खाली हुई थी। आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीटोंपर मुस्लिम आबादीकी बहुलता है। रामपुरमें यह आबादी ५०-५५ फीसदी से ज्यादा है। आजमगढ़में मुस्लिम और यादव ५० फीसदीसे अधिक हैं। ये दोनों लोकसभा क्षेत्र समाजवादियोंके मजबूत गढ़ रहे हैं। औसतन मुस्लिम वोट आज भी मोदी और भाजपाके खिलाफ हैं। ऐसेमें भाजपाने आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीटें जीतकर सबको चौंका दिया है।
आजमगढ़से भोजपुरी फिल्मी सितारे दिनेशलाल यादव निरहुआ और रामपुरसे घनश्याम लोधीने जीत हासिल की। आजमगढ़में तो सपाकी हारका कारण बसपा प्रत्याशी गुड्डू जमाली बने जिन्होंने तकरीबन दो लाख मत हासिल कर लिये। उन्हें बड़ी संख्यामें मुस्लिम मत मिलनेसे सपाको भारी नुकसान हुआ। इस सीटपर अखिलेशने अपने चचेरे भाई धर्मेन्द्रको उतारा था। लेकिन रामपुरमें ५५ फीसदी मुस्लिम मतदाता होनेके बावजूद सपाके आसिम राजाका ४२ हजारसे हार जाना सपाकी चिंता बढ़ानेवाली बात है। इन परिणामोंने उत्तर प्रदेशके मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथके राजनीतिक कदको और ऊंचा कर दिया। सबसे अच्छी बात ये हुई कि उत्तर प्रदेशमें जाति आधारित राजनीति अपना असर खोती जा रही है वहीं मुस्लिम मतदाताओंकी भाजपा विरोधी गोलबंदी भी कारगर साबित नहीं हो रही। कहा जा रहा है कि मुस्लिम समुदायका कुछ हिस्सा भाजपाकी तरफ झुक रहा है जिसकी वजह सपाकी गिरती साख और धाक है। मुलायम सिंह यादवके अस्वस्थ होनेके कारण अखिलेशके हाथ जबसे पार्टीकी कमान आयी है तबसे वह लगातार बिखराव और भटकावका शिकार हो रही है।
वास्तवमें मुसलमानोंके मनमें ये बात घर करने लगी है कि सपाके भरोसे वे अपना राजनीतिक महत्व बरकरार नहीं रख पा रहे। कांग्रेस डूबती नाव है और बसपा अपने बनाये जालमें फंस चुकी है। इस कारण उत्तर प्रदेशके मुसलमानोंके मन भी उथल-पुथल है। राम मंदिरका निर्माण तेजीसे होनेके साथ ही एक तरफ ज्ञानवापी मस्जिदका विवाद गरमाया और दूसरी तरफ मथुरामें कृष्ण जन्मभूमिके मामलेको भी हवा मिलने लगी। इस सबके बीच सपा या अन्य गैर भाजपा पार्टियां जिस तरह असहाय बनी हुई हैं उससे मुसलमानोंको लगने लगा है कि या तो उनका अपना नेतृत्व होना चाहिए अथवा भाजपाके अंधे विरोधसे बचकर उन्हें उसके साथ समन्वय बनाकर चलना चाहिए। अनेक मुस्लिम धर्मगुरुओंने भी ज्ञानवापी और हालमें उठे नूपुर शर्मा विवादपर जिस तरहका समझौतावादी रुख अपनाया वह इस बातका संकेत है कि मुस्लिम समुदायके बीच भाजपाको लेकर विमर्श शुरू हो गया है। सवाल यह भी है कि क्या अब मुसलमान भी प्रधान मंत्री मोदीकी राष्ट्रीय योजनाओं और गरीबोन्मुख कार्यक्रमोंपर यकीन करने लगे हैं, क्योंकि हिस्सेदारी उन्हें भी मिल रही है? क्या मुसलमानोंका एक तबका अब भाजपाको ‘अछूतÓ नहीं मानेगा और इसी तरह जनादेश देकर भाजपाको भी मौका देगा? सारांशमें आजमगढ़ और रामपुरके जनादेशोंको क्या २०२४ के आम चुनावका कोई स्पष्ट संकेत माना जा सकता है? मुख्य मंत्री योगीने २०२४ में उत्तर प्रदेशकी सभी ८० लोकसभा सीटें जीतनेका दावा किया है।
आजमगढ़से भाजपा उम्मीदवार, भोजपुरी फिल्मोंके सुपर स्टार, दिनेश लाल यादव ‘निरहुआÓ ने ८६७९ मतोंसे सपाके धर्मेन्द्र यादवको हराया है। जनादेशका यह फासला बहुत चौड़ा नहीं है। यदि बसपा उम्मीदवार नहीं होता तो नतीजा कुछ भी हो सकता था। यह सीट अखिलेश यादवके इस्तीफेसे खाली हुई थी, क्योंकि अब वह विधानसभामें नेता प्रतिपक्ष हैं। रामपुर क्षेत्रमें पुराने सपा नेता आजम खानका ऐसा जलवा रहा है कि उन्होंने जेलमें रहते हुए ही विधानसभाका चुनाव जीता है। सांसदीसे उनके इस्तीफेके बाद ही यह सीट खाली हुई थी, लेकिन भाजपाके जिस प्रत्याशी घनश्याम लोधीने ४२,१९२ मतोंसे सपा नेता आसिम रजाको पराजित किया है, वह खुद सपासे भाजपामें आयातित हैं और १२ सालतक विधायक भी रहे हैं। साफ है कि भाजपाके पक्षमें कोई ‘क्रांतिकारी धुव्रीकरणÓ नहीं हुआ है। फिर भी ये चुनावी जीत तो हैं। इनसे लोकसभामें सपाके मात्र तीन सांसद रह जायंगे और भाजपाकी संख्या फिर ३०३ हो जायगी। भाजपाकी तुलनामें सपा, अखिलेश यादवके नेतृत्वमें, २०१४ का लोकसभा, २०१७ का विधानसभा, २०१९ का लोकसभा और अब २०२२ का विधानसभा चुनाव लगातार हारी है। भाजपाकी ठोस चुनावी रणनीतिको समझा जा सकता है। बेशक उपचुनाव थे, लेकिन मुख्य मंत्री योगीने सभाओंको संबोधित किया और मंत्रियोंसे लेकर आम काडरतक सभी अपने-अपने स्थानपर सक्रिय रहे। जनादेश सामने हैं। समाजवादियोंके गढ़ ढहाये हैं और वहां अपनी सत्ता स्थापित की है। अब पार्टीका उन क्षेत्रोंमें भी विस्तार किया जायगा।
विधानसभा चुनावमें मिली हारके झटकेसे अखिलेश अभीतक उबर नहीं पाये हैं। यदि यही हाल रहा तो २०२४ का लोकसभा चुनाव आते-आतेतक सपा भी शिवसेना जैसी हालतमें आ जाय तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि मुलायम सिंह यादवके हाशियेपर चले जानेके बाद अखिलेशका जो रवैया है उसकी वजहसे पार्टीका एकजुट बने रहना संभव नहीं लगता। यादवोंके साथ मुसलमानोंको जोड़कर बनाया गया एम. वाय समीकरण काठकी हांडी साबित हो चुका है। २०१४ और २०१९ के लोकसभाके अलावा २०१७ तथा २०२२ के विधानसभा चुनावमें भाजपाने उत्तर प्रदेशमें जिस तरह अपने प्रभाव क्षेत्रमें वृद्धि की वह साधारण बात नहीं है। भाजपा जहां अपने मौलिक एजेंडेपर चलते हुए ८० लोकसभा सीटोंवाले इस प्रदेशमें अपनी पकड़ मजबूत करती जा रही है वहीं सपा आत्ममुग्धताकी शिकार होकर अपने मजबूत किले गंवाती जा रही है। इन नतीजोंके लिए सपाके नये सहयोगी ओमप्रकाश राजभरने अखिलेशको जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि वे अपने वातानुकूलित कमरेसे ही बाहर नहीं निकले और नामांकनके अंतिम दिन प्रत्याशी घोषित किये। उन्होंने यहांतक कह दिया कि यदि वे स्वयं और उनके साथी आजमगढ़में मोर्चा नहीं संभालते तो हार लाखों में होती। आजमगढ़ और रामपुरके उपचुनाव परिणाम अखिलेश यादवके लिए बहुत बड़ा झटका है। इससे अपनी पार्टीके भीतर भी उनकी वजनदारीमें कमी आयेगी और सबसे बड़ी बात ये है कि सपा संस्थापक मुलायम सिंह अब उस स्थितिमें नहीं रह गये कि उनकी ढाल बन सकें। ऐसेमें शिवपाल यादव और आजम खान ज्यादा दिन खामोश नहीं बैठेंगे। आगामी दिसंबरमें नगर निगमके चुनाव होने है। उपचुनावके नतीजोंसे बीजेपीको मनोवैज्ञानिक बढ़त मिली है। ऐसेमें लगता है कि आनेवाले दिनोंमें समाजवादी पार्टी और अखिलेशकी मुश्किलें बढ़नेवाली हैं।