सम्पादकीय

जीवनरक्षककी संदिग्ध भूमिका


ऋतुपर्ण दवे  

नकली इंजेक्शन और दवाओंका कोरोना महामारीकी आपदाके बीच जो भांडाफोड़ हुआ, उससे दवा विक्रेताओंकी नीयतपर सवाल जरूर उठ खड़ा हुआ है। चंद विक्रेताओंसे लेकर कुछ फार्मा कम्पनियोंकी मिलीभगतकी जो सचाइयां सामने आयी हैं उसने हर किसीको परेशान कर दिया है। बेशक आपदाके इस अवसरमें कागजकी दौलतको अपना भगवान बनानेवाले चंद कथित हत्यारोंके चलते हर कहीं इन्हें शकसे देखा जाना गलत होगा। लेकिन कहते हैं न, एक मछलीसे सारा तालाब गन्दा हो जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सबसे बेदाग, असली और भरोसेकी दुकान देशमें केवल दवाओंकी मानी जाती थी। अब इसमें भी चंद मुनाफाखोरोंने बट्टा लगा दिया। हद तो तब हो गयी कि कोरोना महामारीपर सबसे असरकारक कहे जानेवाले रेमडेसीवीर इनजेक्शनके तार नेपालसे जुड़ते दिखे। उसके बाद तो जैसे पूरे देशमें जहां-तहां मामले मिलनेसे लोग सकतेमें हैं। न्यूमोनियामें काम आनेवाले पाउडरसे नोएडा जैसे शहरमें तो कहीं नमक और ग्लूकोजसे बने इनजेक्शनको जबलपुरमें खपाये जानेके मामलेने जैसे होश उड़ा दिये। इसके अलावा मोरपेनम जेनरिक इनजेक्शनका लेबल बदल रेमडेसिविरमें तब्दील किये जानेतक घिनौना काम नक्कालोंने कर इनसानियतको ही दागदार कर दिया। मौजूदा तय दामों ९०० रुपयेसे लेकर ३५०० रुपयेमें बिकनेवाले असली इनजेक्शनकी कमीके चलते नकली इनजेक्शन ३५ हजारसे ५० से ७५ हजार और एक लाख रुपयेतकमें कालाबाजारमें बिकने लगा तभी शक ही सही सबको खेल समझ आने लगा।

हैरान कर देनेवाली सचाई तो और भी डराती है। कमाईके इस काले कारोबारमें जिन अस्पतालोंसे नयी जिन्दगीकी आस होती है यदि वही जिन्दगीकी नाशमें शामिल हो जाय तो भरोसा किसपर किया जाय। मध्यप्रदेशके जबलपुरमें तो हद हो गयी जब नकली दवाओंमें एक थोक व्यापारी और अस्पतालके संचालककी मिलीभगत सामने आयी। पुलिसने इनपर तमाम रसूखदारोंके आशीर्वादको दरकिनार कर एफआईआर कर ली। समाजमें खासा रुतबा और प्रतिष्ठाके बावजूद जान देनेवाले ही जब जानलेवा बन जायं तो विडंबना ही है। इनसे निबटना वैसी ही चुनौती है जैसे आस्तीनमें सांप लिये घूमना। कुछ दिन पहले गुजरातकी मोरबी पुलिसने नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन बनानेवाले गिरोहका पर्दाफाश किया और इसके जबलपुर सहित देशभरमें जहां-तहां कनेक्शन होनेपर एक बड़े दवा कारोबारीको गिरफ्तार भी किया। मामला कितना बड़ा और किस तरह नकली इनजेक्शनसे नोट छापनेका है इससे ही पता लगता है कि पुलिसने इनसे ९० लाख रुपये और ३३७० नकली रेमडेसिविर इनजेक्शन जब्त किये तथा सात आरोपी गिरफ्तार किये। इन्दौरमें भी दो दिन पहले विजय नगर पुलिसने रेमडेसिविरके नकली इंजेक्शनको बेचते कुछ लोगोंको पकड़ा जिनमें एक हास्पिटलका डाक्टर है। फिलहाल ११ आरोपियों समेत १४ इंजेक्शन जब्त हो चुके हैं। यहां भी गुजरातमें कनेक्शन मिला है। यह मौतके सौदागर सोशल मीडियापर मददकी दुहाई देकर महंगे दाममें नकली इंजेक्शन बेचते थे। हरिद्वारसे भी बड़ी चैन जुडऩी शुरू हुई। मामलेमें २६ अप्रैलको दिल्लीसे साधना शर्मा नामकी महिलाको संदिग्ध लगनेपर निगरानी रखी गयी जिसके बाद तो पूरे गिरोहके तार खुलने लगे। पुलिसने जाल फैलाया और उत्तराखण्डके पौड़ी जिलेके कोटद्वारतक जा पहुंची। यहां नेक्टर हब्र्स एंड ड्रग्सके नामसे लीजपर ली हुई कंपनी आदित्य गौतम द्वारा चलायी जा रही थी जो दूसरी एंटी बायोटिक दवाईयोंसे नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन तैयार कराने लगा। कुछ इनजेक्शनके लेबल हटाकर उनपर रेमडेसिविरके लेबल लगाने लगा। धीरे-धीरे अपने नेटवर्कके जरिये पूरे देशमें मुंहमांगे दामोंमें बेचने लगा। मामलेमें दिल्ली पुलिसने कई गिरफ्तारियोंके साथ १९८ नकली इंजेक्शन, ३००० खाली शीशियां, पैकिंग मशीने, नकली रैपर्स, पैकिंगका अन्य सामान, दूसरी कंपनीकी एंटीबायोटिक दवाईयां, कंप्यूटर और कुछ गाडिय़ां जब्त की है।

प्रधान मंत्रीकी जेनरिक दवाओंकी परिकल्पनाके बावजूद लोगोंको सस्ती दवा न मिलनेका सच भी इसीमें छिपा है। रेमडेसिविरकी कमीके बाद कालाबाजारीतक तो मामला समझ आता है लेकिन नकली इनजेक्शन वह भी केवल नमक और ग्लूकोजसे दवा फैक्टरीमें तैयार करनेको जितना भी घिनौना, शर्मनाक, घोर आपराधिक कहा जाय कम है। इन्हें सामूहिक नरसंहारका दोषी भी कहना बेजा नहीं होगा। यकीनन इस सचसे दुनियाके सामने भारतकी छविको कितना गहरा धक्का लगा है जिसका आकलन नामुमकिन है। सामान्य दिनोंमें विदेशोंसे आनेवाले सैलानियोंसे लेकर तमाम दूतावासों और यहांपर आये हजारों विदेशियोंके दिमागमें क्या चलेगा सोचकर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लगता नहीं कि अब दवा बनाने और बेचनेपर सख्ती होनी चाहिए। निगरानी और जांच तंत्रको पुख्ता और आनलाइन होना चाहिए। कमसे कम जीवन रक्षक और महंगी दवाओंका आनलाइन डेटा हो जिसमें बैचसे लेकर एक्पायरीतककी पारदर्शिताकी जानकारी आम और खासको हो ताकि कालाबाजारीपर रोक लगे। इन सबसे बढ़कर यह कि क्या कभी नकली इनजेक्शनसे जान गंवा चुके लोगोंका पता लग पायगा भी या नहीं। सचमें इनसानियतको शर्मसार कर देनेवाली इस सचाईका जवाब शायद यमराजके पास भी नहीं होगा क्योंकि कहते हैं वह तो बस मौतोंका हिसाब-किताब करता है, मौतके सौदागरोंसे दी हुई मौतोंका नहीं! कानूनकी सख्तीकी बात तो की जा सकती है लेकिन नकली इनजेक्शनसे हुए नरसंहारोंपर सार्वजनिक फांसी दिये जानेकी बात करना भी अपराध ही होगा। इतनी तो उम्मीद की जा सकती है कि इन मौतके सौदागरोंका हर कहीं फास्ट ट्रायल कोर्टमें मामला चले और इन्हें भी वही सजा मिले जिसका दर्द कीमत चुकाकर भी लोगोंने झेला है ताकि आगे नक्कालोंसे महामारीमें मौतोंका आंकड़ा न बढ़े।