श्रीराम शर्मा
आजके समयमें मनुष्यके बाहर-भीतर शांति तथा सुव्यवस्था स्थापित करनेके लिए आध्यात्मिक प्रयास ही सार्थक हो सकते हैं। श्रद्धा, भावना, तत्परता एवं गहराई इन्हींमें समाहित है। हर मानवका धर्म, सामान्यसे ऊपर, वह कर्तव्य है, जिसे अपना कर लौकिक, आत्मिक उत्कर्षके मार्ग प्रशस्त हो जाते हैं। धर्म अर्थात्ï जिसे धारण करनेसे व्यक्ति एवं समाजका सर्वांगीण हित साधन होता है। आस्तिकता और कर्तव्य परायणताको मानव जीवनका धर्मकर्तव्य माना गया है। इनका प्रभाव सबसे पहले अपने समीपवर्ती स्वजन शरीरपर पड़ता है। इसलिए शरीरको भगवानका मंदिर समझकर, आत्मसंयम और नियमितता द्वारा उसकी सदैव रक्षा करनी चाहिए। शरीरकी तरह मनको भी स्वच्छ रखना आवश्यक है। इसे कुविचारों और दुर्भावनाओंसे बचाये रखनेके लिए स्वाध्याय एवं सत्संगकी व्यवस्था रखनी पड़ती है। मन और शरीरके बाद व्यक्ति जिस समाजमें रहता है, अपने आपको उसका एक अभिन्न अंग मानना चाहिए। सबके हितमें अपना हित समझना सामाजिक न्यायका अकाट्य सिद्धांत है। इसलिए इस सिद्धांतकी कभी भी उपेक्षा हितकर नहीं। सुख केवल हमारी मान्यता और अभ्यासके अनुसार होता है, जबकि हित शाश्वत सिद्धांतोंसे जुड़ा है। संसार एक दर्पणके समान है। हम जैसे हैं, वैसी ही छाया दर्पणमें दिखाई पड़ती है। संतों, सज्जनोंका सम्मान होता है, तो दुर्जन, स्वार्थी, कुकर्मियोंकी घृणा तथा प्रताडऩा की जाती है। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर नागरिकता नैतिकता, मानवता, सच्चरित्रता, सहिष्णुता, श्रमशीलता जैसे सद्गुणोंको सच्ची संपत्ति समझकर इन्हें व्यक्तिगत जीवनमें निरंतर बढ़ाना जरूरी है। शास्त्रोंमें आत्मनिर्माण हेतु साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा यह चार साधन बताये गये हैं। ईश्वर उपासनाको दैनिक जीवनमें स्थान देना साधना है। विचारोंका सही एवं सुसंस्कृत बनना स्वाध्यायपर निर्भर है। शक्तियों एवं विभूतियोंको निरर्थक, हानिकारक तथा कम महत्वके प्रसंगोंसे हटाकर उन्हें सार्थक हितकारी तथा अधिक उपयोगी विषयोंमें ठीक प्रकार नियोजित करना ही संयम कहलाता है। मनुष्यका विकास कितना हुआ, इसका प्रमाण उसकी सेवावृत्तिसे लगाया जा सकता है। अत: सेवाको अनिवार्य रूपसे जीवनमें स्थान देना चाहिए। सामान्य स्थितिमें व्यक्ति वातावरणसे प्रभावित होता है, परन्तु अंतरंग श्रेष्ठताका विकास होनेपर वह वातावरणको प्रभावित करने लगता है। लोगोंकी दृष्टिमें सफलताका ही मूल्य है। जो सफल हो गया उसीकी प्रशंसा की जाती है, बल्कि अनीतिसे प्राप्त सफलताकी अपेक्षा नीतिपर चलते हुए असफलताको शिरोधार्य करनेवालोंकी ही सम्मान एवं प्रशंसा होनी चाहिए। मनुष्यके मूल्यांकनकी कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियोंको नहीं, बल्कि उनके सद्विचारों और सत्कर्मोंको माना जाय।