मिथिलांचल में साधना की अलग संस्कृति, अलग परंपरा
डॉ. लक्ष्मीकान्त सजल
पटना। देवी के आगमन को लेकर मिथिलांचल में घर-घर गोसाउनि के गीत गाये जाने लगे हैं। गुरुवार को मिथिलांचल में घर-घर गोसाउनि-घर में पवित्र शक्तिकलश की स्थापना होगी। और, आद्याशक्ति नवदुर्गा के प्रथम रूप माते शैलपुत्री की पूजा होगी। इसके साथ ही देवी की आराधना में गोसाउनि के गीत के मैथिल ललनाओं के स्वर गहराते चले जायेंगे।
मिथिला आदिकाल से साधना और उपासना की भूमि रही है। साधना और उपासना की भूमि मिथिला ने एक से बढ़ कर एक साधकों और उपासकों को जन्म दिया। मिथिलांचल में साधना और उपासना की अपनी अलग संस्कृति और परंपरा रही है। साधना और उपासना की संस्कृति एवं परंपरा को राजे-रजबाड़ों के समय में राज्य सत्ता का न केवल संरक्षण प्राप्त था, अपितु राजे-महाराजे भी साधना और उपासना की सदियों से चली आ रही संस्कृति और परंपरा का अनुशरण करते। यही वजह रही कि यहां के राजे-महाराजाओं ने देश-दुनिया का ध्यान अपनी ओर साधक और उपासक के रूप में आकृष्ट किया। राजा जनक तो साधना एवं उपासना के चरम पर थे। इसीलिए, उन्हें विदेह कहा गया।
मिथिला वह पवन भूमि है, जहां त्रेता में धरा से सीता अवतरित हुईं। हुआ यूं कि मिथिला में महाअकाल पड़ा। बारिश नहीं होने से खेतों में दरारें पड़ गयीं। चारों ओर हाहाकार मचा था। भविष्यवाणी हुई कि अगर राजा जनक स्वयं खेत में हल चलायें, तो बारिश होगी। राजा जनक हल-बैल के साथ खेत में पहुंच गये। हल जोत ही रहे थे कि वह जमीन के नीचे किसी वस्तु से टकराया। हल का फाड़ जिस वस्तु से टकराया था, वह कलश था। उससे सीता अवतरित हुईं। चूंकि, वह खेत राजा जनक का था, इसीलिए वे सीता को पुत्री के रूप में राजमहल ले गये। जनक की पुत्री होने की वजह से ही सीता, जानकी कहलायीं। सीता शक्ति हैं, जो हिंदुओं के हर घर में पूजित हैं।
हालांकि, मिथिला में शक्ति के रूप में नारी की पूजा की परंपरा त्रेता के बहुत पहले अनादिकाल से है। इसके उदाहरण शास्त्र-पुराणों में भरे पड़े हैं। शक्ति के रूप में नारी की पूजा की परंपरा मिथिला में आज भी कायम है।
पंचोदेवोपसना की भूमि मिथिला में शक्ति की पूजा की परंपरा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हिंदुओं के हर घर में शक्ति की पूजा प्रतिदिन गोसाउनि के रूप में होती है। हर हिन्दू परिवार में कुलदेवी के रूप में शक्तिरूपा भगवती स्थापित हैं। इन्हें गोसाउनि कहते हैं। घरों के जिस कमरे में कलश रूप में गोसाउनि स्थापित हैं, उसे गोसाउनि-घर कहा जाता है। गोसाउनि की पूजा प्रतिदिन शाम-सबेरे होती है। किसी भी शुभ कार्य के पहले गोसाउनि की पूजा का विधान है। गोसाउनि की पूजा के पहले महिलाएं गोसाउनि के गीत गातीं हैं। परिवार का कोई भी सदस्य घर से बाहर जाय या घर में प्रवेश करे, तो पहले वह गोसाउनि को प्रणाम करता है। उनकी पूजा करता है।
मिथिला के किसी भी गांव में, किसी भी रास्ते से प्रवेश करें, तो स्वागत तालाब करेगा। और, उसके किनारे शिवालय एवं कालीस्थान के दर्शन होंगे। इसलिए कि, तालाब में हाथ-पैर धो शिव और शक्ति को प्रणाम करने के बाद ही गांव में प्रवेश की परंपरा रही है। कालीस्थान में आदिशक्ति नवदुर्गा के सभी नौ रूपों की पूजा पिंडी रूप में होती है। नवदुर्गा के साथ पिंडी रूप में ही भैरव की भी पूजा का विधान है।
ऐसे में उपासना की भूमि मिथिला में शारदीय नवरात्र को साधना के महापर्व के रूप में लिया जाता है। मिथिला में नवरात्र-पूजन का अपना अलग विधान है। अपनी अलग परंपरा है। यह विधान और परंपरा बंगाल के विधान और परंपरा से पूरी तरह भिन्न है। इस मायने में कि, मिथिलांचल के प्रत्येक हिन्दू परिवार में प्रथम पूजा के दिन ही गोसाउनि-घर में पवित्र शक्तिकलश की स्थापना वैदिक तरीके से वेद मंत्रों के साथ होती है। पवित्र शक्तिकलश स्थापन का मुहूर्त मिथिला पञ्चाङ्ग के आधार पर तय होता है।
पवित्र शक्तिकलश की स्थापना के साथ होती है नवदुर्गा के प्रथम रूप की पूजा। नौ दिनों तक अनवरत सबेरे-शाम कलश-स्थल पर श्रीदुर्गासप्तशती के पाठ के साथ क्रमश: नवदुर्गा के सभी नौ रूपों की पूजा होती है। शारदीय नवरात्र में शायद ही कोई ऐसा हिन्दू घर होगा, जिसमें एक से अधिक सदस्य उपासना पर नहीं रहते होंगे। लगातार नौ दिनों तक चलने वाले उपासना में उपासक या तो पूरी तरह उपवास पर रहते हैं या फिर सूर्यास्त के बाद फल-दूध लेते हैं। जो नौ दिनों तक उपवास पर नहीं रहते, वे भी महाअष्टमी के दिन उपवास रखते हैं।
मिथिला की उपासना पद्धति बांग्ला की उपासना पद्धति से इस मायने में भी भिन्न है कि बांग्ला पद्धति में कुमारी पूजा का विधान महाअष्टमी को है। इससे इतर मिथिलांचल में कुमारी पूजा महानवमी के दिन होती है। उस दिन उपासना वाले हर घर में कुमारियों का निमंत्रण होता है। उनकी पूजा होती। फिर, उन्हें भोजन कराया जाता है। भोजन में खीर-पूरी-मिठाई खिलाये जाने का विधान है। भोजन कराने के बाद उन्हें दक्षिणा दी जाती है। उपहार दिये जाते हैं। विदा करने के पहले उनके पांव छूये जाते हैं। कुमारियों के साथ ही कुमार भी आमंत्रित किये जाते हैं। उन्हें भी कुमारियों के समान ही भोजन कराया जाता है। दक्षिणा दी जाती है। उपहार दिये जाते हैं। विदा करने के पहले उनके भी चरण छूये जाते हैं। उसके बाद ही उस दिन घर-परिवार के लोग कुमारी पूजन के प्रसाद को अन्न-जल ग्रहण करते हैं।
घरों के साथ ही गांवों के कालीस्थान में गांव भर की कुमारियों एवं कुमारों का सामूहिक पूजन होता है। पंगत में बिठा केले के पत्ते पर उन्हें खीर खिलायी जाती है। दक्षिणा दी जाती है।
मिथिला की एक और परंपरा है। वह, यह कि, जब बेटी घर से विदा होती है, तो उसे खोइंछा दिया जाता है। खोइंछा में धान (अन्न), दूब और द्रव्य (धन) देने का विधान है। खोइंछा के साथ साड़ी, चूड़ी और श्रृंगार सामग्री भी दी जाती है। सो, इसी परंपरा के तहत शारदीय नवरात्र की पूर्णाहूति के बाद जब देवी विदा होती हैं, तो महिलाएं उनका खोइंछा भरती हैं। खोइंछा भरते वक्त महिलाओं की आंखों में आंसू होते हैं। ये आंसू विछोह के होते हैं। आंसू के साथ ही आंखों में मन्नतों के पूरा होने की आंकाक्षा रहती है। उसमें देवी के पुनरागमन और पुन: दर्शन के भाव होते हैं।
अनादिकाल से मिथिला तन्त्र साधना की भूमि भी रही है। यही वजह है शारदीय नवरात्र में तन्त्र अनुष्ठान की भी परंपरा रही है। तन्त्र साधना खास तौर पर महासप्तमी से शुरू होकर महादशमी तक चलती है। इसमें साधक तंत्रसाधना स्थलों पर साधना करते हैं। तंत्रसाधना स्थलों में श्मशान शामिल होते हैं। इस परंपरा का यह असर है कि महासप्तमी के दिन से ही माताएं अपनी नजर से नन्हे पुत्रों को ओझल नहीं होने देतीं। उन्हें काला टीका लगाती हैं। बांह या कमर में काला धागा से लहसुन या प्याज बांधती हैं, ताकि उन्हें किसी की नजर-गुजर न लगे।
चूंकि, मिथिला शाक्तों की भूमि रही है, इसीलिए, शारदीय नवरात्र की पूर्णाहूति पर बलि देने की परंपरा भी रही है। कालीस्थानों में व्यक्तिगत के साथ छागरों की सामूहिक बलि प्रदान की जाती है। उसे महाप्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। महाप्रसाद बांटे भी जाते हैं। कालीस्थानों में इसके लिए समूहिक भोज के भी आयोजन होते हैं। महाप्रसाद में प्याज का उपयोग वर्जित है।
बहरहाल, अब छागर की बलि के बदले छिलके और पानी वाले नारियर की बलि की परंपरा चल पड़ी है।