Latest News सम्पादकीय

जंगलोंको बचानेकी जरूरत


ब्रह्मïांडमें प्राकृतिक दुनियाकी सबसे बेशकीमती एवं खूबसूरत संपदा पेड़-पौधोंसे लबरेज वन हैं। प्राचीन कालसे वन्य क्षेत्र जंगली जानवरों एवं मानवताके लिए अनमोल प्राकृतिक संसाधन रहे हैं। देशकी सियासत एवं तमाम इंतजामिया हालमें संपन्न हुए लोकसभा चुनावोंमें मशगूल थे, परन्तु हिमाचल सहित कई अन्य राज्योंमें जंगल दावानलकी चपेटमें आ चुके थे। नब्बे प्रतिशतसे अधिक जैव विविधता जंगलोंमें ही पायी जाती है। लोगोंको प्राकृतिक संसाधनोंके दोहनके प्रति जागरूकता तथा पर्यावरणकी अहमियतको समझानेके लिए राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तरपर हर वर्ष पर्यावरण दिवस एवं पृथ्वी दिवस मनाये जाते हैं। जंगली जीवोंके संरक्षणकी आवश्यकताको देखते हुए विश्व वन्य जीव दिवस भी मनाया जाता है। जंगलों एवं पेड़ोंके महत्वके मद्देनजर सन् १९५० से वन महोत्सव तथा वन संरक्षणसे संबधित अतरराष्ट्रीय वन दिवस भी मनाया जाता है। पर्यावरण एवं वन संरक्षणके लिए देशकी अदालतोंमें एक बड़ा कानूनी मसौदा मौजूद है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, वन विभाग, राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण एवं प्रशासन जैसी व्यवस्थाओंके दफ्तरोंमें अंग्रेजी झाड़नेवाली अफसरशाही तथा सैकड़ों अहलकार विराजमान हैं। राज्योंसे लेकर मरकजी हुकूमततक पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय मौजूद हैं। लेकिन इसे इत्तेफाक कहें या व्यवस्थाओंकी नाकामी, हर वर्ष जंगलोंमें लगनेवाली भयंकर आगसे निबटनेके लिए कोई भी हिकमत-ए-अमली कारगर साबित नहीं हुई, बल्कि वनाग्निकी घटनाओंमें हर वर्ष इजाफा हो रहा है।
चुनावी दौरमें मुल्ककी आवाम गुरबत, जाति, मजहब, मुफ्तखोरीकी खैरात, नौकरियां एवं विकास जैसे मुद्दे उठानेके प्रति जागरूक है। परन्तु पर्यावरण संरक्षण एवं जंगलोंकी भयंकर आग जैसे संवेदनशील मसलेपर आवाज कभी बुलंद नहीं होती। लोकसभा चुनावोंके दौरान सियासी दलोंने महंगी एवं बेरोजगारी जैसे मुद्दोंको जोर-शोरसे उठाया। लेकिन पर्यावरण संरक्षण एवं जलते जंगलोंका जिक्र किसी भी सियासी मंचसे नहीं हुआ। पर्यावरण संरक्षणका मुद्दा कभी चुनावी घोषणापत्रोंमें भी शामिल नहीं हुआ। वनाग्निके मसलेपर सियासी तौरपर भी कभी चर्चा नहीं हुई। भारतमें राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) को पर्यावरण अदालत कहा जाता है। एनजीटीको उच्च न्यायालयके बराबर शक्तियां प्राप्त हैं। सन् २०१० में एनजीटीकी स्थापनाका मकसद पर्यावरणीय क्षति एवं वन संरक्षण तथा प्राकृतिक संसाधनोंसे संबंधित मुद्दोंको शीघ्रतासे हल करनेसे है। आस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंडके बाद पर्यावरण न्यायाधिकरणकी स्थापना करनेमें भारत विश्वमें तीसरा देश है। दुनियाके सबसे बड़े वन क्षेत्रोंवाले दस देशोंमें भारत भी शामिल है, परन्तु दावानलकी भयंकर चपेटमें आनेसे जंगल, पर्यावरण एवं जैव विविधता जिस कदर सिसकियां भर रहे हैं, उस सूरत-ए-हालको लफ्जोंमें बयान नहीं किया जा सकता। जंगल आगकी चपेटमें आ रहे हैं। देशमें हजारों उद्योग एवं फैक्टरियां लगातार प्रदूषण उगल रहे हैं। औद्योगिक क्षेत्रों एवं शहरोंमें ज्यादातर लोग प्रदूषणकी जदमें जीवनयापन करनेको मजबूर हैं।
हिमाचल प्रदेशका नाम सुनते ही जहनमें पहाड़ों एवं वनोंकी तस्वीर उभरती है। पर्वतीय राज्य हिमाचलमें पर्यटन उद्योग युवावर्गके लिए रोजगारका महत्वपूर्ण साधन है। मैदानी क्षेत्रों एवं शहरोंसे हजारोंकी तादादमें लोग भीषण गर्मीसे निजात पानेके लिए तथा सुकूनके कुछ पल बितानेके लिए पहाड़ोंका रुख करते हैं। प्रकृतिसे सराबोर जंगल पर्यटन उद्योगके आकर्षणका मुख्य केन्द्र हैं। परन्तु बरसातके मौसममें प्रकृतिके प्रकोपसे पहाड़ दरक रहे हैं। गर्मियोंमें जंगल भीषण आगसे जल रहे हैं। कई जंगली जीवों एवं पक्षियोंकी दुर्लभ प्रजातियोंका प्रजनन काल गर्मीके मौसममें होता है, परन्तु प्रतिवर्ष असंख्य वन्य जीव एवं जंगली जानवर वनोंकी भयानक आगमें जलकर राख हो जाते हैं। वनोंमें आगजनीकी बढ़ती घटनाओंसे वन्य जीवों एवं पक्षियोंकी कई दुर्लभ प्रजातियोंका वजूद मिट चुका है। औषधीय वनस्पतिसे लबरेज वनोंका आयुर्वेदिक पद्धतिमें भी अत्यधिक महत्व रहा है, परन्तु वनाग्निसे कई किस्मकी औषधीय वनस्पतिका अस्तित्व समाप्त हो चुका है। यदि अमूल्य वन संपदा वनाग्निकी भेंट चढ़ जायगी तो पर्यावरणके साथ पर्यटन उद्योग भी मुतासिर होगा। वायु प्रदूषणके बढ़ते स्तरपर काबू पानेका मुफीद विकल्प पेड़ोंसे लबरेज वन्य क्षेत्र हैं। वन्य क्षेत्रके बिना स्वच्छ पर्यावरण, जैव विविधता एवं जंगली जीवोंके वजूदकी कल्पना नहीं की जा सकती। वनोंमें आग लगनेकी घटनाओंपर देशके न्यायालय, पर्यावरणकर्ता एवं सरकारें चिन्ता जरूर व्यक्त करती हैं, जबकि प्रकृतिको सबसे अधिक नुकसान मानवीय गतिविधियोंसे ही पहुंचता है। जंगलोंमें आग लगनेके ज्यादातर कारण मानवीय लापरवाहीके हैं। भयंकर दावानलपर काबू पाना लगभग नामुमकिन है। अलबत्ता सामाजिक तौरपर जागरूकता बढ़ानेकी जरूरत है, ताकि जंगलोंमें आग न लगायी जाय। वनोंके लगातार जलनेसे इस धरापर समस्त प्राणियोंका जीवन असम्भव हो जायगा। वनाग्निसे अमूल्य वन सम्पदा एवं जंगली जीवों तथा पक्षियोंके जलनेका दर्द समझना होगा।
प्राचीन भारतके अनुसंधानका केन्द्र रहे वन्य क्षेत्र मानवीय स्वास्थ्यका सबसे बड़ा रक्षा कवच हैं। भारतीय संस्कृतिमें अनादिकालसे वनोंका आध्यात्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्व रहा है। वैदिक साहित्यके रचयिता हमारे मनीषियोंके चितंन, ध्यान साधना, अध्यात्म, दर्शन एवं शोधका केन्द्र वन्य क्षेत्र ही रहे हैं। आधुनिक दौरके पर्यावरण संरक्षणके आयोजनों एवं मंत्रालयोंके बिना प्रकृतिको सहेजनेके कई उत्सव एवं संस्कार प्राचीन भारतकी वैदिक संस्कृति एवं सामाजिक परिवेशमें मौजूद थे। उन महान संस्कारोंको अपनानेकी जरूरत है। फिलहाल यदि कायनातकी खूबसूरत वन संपदाका दिलशाद चेहरा दावानलसे खाक होता रहेगा तो प्रकृति एवं पर्यावरणकी तबीयत नासाज हो जायगी। अत: प्रकृतिका संतुलन बरकरार रखनेके लिए जंगलोंको आगसे महफूज रखनेके हरसंभव प्रयास होने चाहिए। वनोंको दावानलसे हर कीमतपर बचाना होगा।