जीएसटी काउंसिल द्वारा पैकेटबंद दही, लस्सी, आटा, पनीर सहित कुछ अन्य खाद्य सामग्रियों पर पांच प्रतिशत जीएसटी लगाए जाने का कांग्रेस सहित कुछ विपक्षी दल विरोध कर रहे हैं। वे ऐसा जाहिर कर रहे हैं कि यह निर्णय केंद्र सरकार ने लिया है। हालांकि यह फैसला केंद्र सरकार का नहीं, बल्कि जीएसटी काउंसिल का है। यह एक नीतिगत निर्णय है। अत: इसका समर्थन अथवा विरोध भी नीतिगत होना चाहिए। तथ्यों को दरकिनार कर इसका विरोध तर्कहीन राजनीति के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
जीएसटी काउंसिल का ढांचा: तथ्य यह है कि जीएसटी की दरों में बदलाव के संबंध में कोई भी निर्णय लेने का अधिकार जीएसटी काउंसिल को है। जीएसटी काउंसिल का गठन और इसकी कार्यप्रणाली संघीय ढांचे के अनुरूप है, जिसमें सभी राज्यों के वित्त मंत्री सदस्य हैं। किसी निर्णय आदि के संबंध में राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों को वोटिंग का अधिकार मिला हुआ है। अत: यह मानना सिरे से गलत है कि जीएसटी की दरों में किसी प्रकार के निर्णय केंद्र सरकार द्वारा लिए जाते हैं। वास्तव में इसमें राज्यों की पर्याप्त भूमिका और हिस्सेदारी होती है। हालांकि अबतक का जो इतिहास है उसमें किसी भी निर्णय में वोटिंग कराने की स्थिति बहुत कम ही आई है। ज्यादातर निर्णय राज्य और केंद्र परस्पर सहमति से ही लेते रहे हैं। पैकेटबंद दही, लस्सी, पनीर जैसी वस्तुओं पर पांच प्रतिशत जीएसटी लगाने का निर्णय भी सर्वानुमति से लिया गया है।
गौरतलब है कि कोविड की गंभीर परिस्थितियों को देखते हुए गत 17 सितंबर, 2021 को लखनऊ में हुई जीएसटी काउंसिल की 45वीं बैठक में सभी राज्यों की तरफ से टैक्स दरों में बदलावों को लेकर कुछ मांगें रखी गईं। जीएसटी दरों के संबंध में बदलावों से जुड़ी मांगों पर विचार करने के लिए जीएसटी काउंसिल ने सात राज्यों के प्रतिनिधित्व वाले एक मंत्री समूह का गठन किया। उस मंत्री समूह में एनडीए शासित राज्यों-कर्नाटक, बिहार, उत्तर प्रदेश और गोवा के अलावा गैर-एनडीए शासित केरल, बंगाल और राजस्थान के वित्त मंत्री भी रहे।
विपक्ष शासित राज्यों का रुख : आज अगर कांग्रेस सहित कुछ अन्य दल जीएसटी काउंसिल के इस निर्णय का विरोध कर रहे हैं तो यह देखना भी जरूरी है कि मंत्री समूह के सुझावों और जीएसटी काउंसिल की बैठक में उनकी सरकारों का पक्ष क्या था? सच्चई यही है कि जीएसटी काउंसिल की 47वीं बैठक में मंत्री समूह द्वारा दिए गए सुझावों के आधार पर सभी राज्यों ने सर्वानुमति से नई दरों को लागू करने का निर्णय लिया। इसी के तहत कुछ पैकेटबंद खाद्य सामग्रियों पर पांच प्रतिशत जीएसटी लगाया गया है। अगर यह निर्णय गलत है तो क्या राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने मंत्री समूह में अथवा जीएसटी काउंसिल की बैठक में इसपर असहमति जताई? जवाब है-नहीं। क्या तृणमूल कांग्रेस की सरकार ने असहमति जताई? जवाब है-नहीं। क्या केरल की लेफ्ट सरकार ने इसपर जीएसटी काउंसिल की बैठक में असहमति जताई? जवाब है-नहीं। तो फिर इस निर्णय का विरोध कर रही कांग्रेस के विरोध का आधार क्या है? लगता तो यही है कि वह सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रही है।
इसी मसले से जुड़ा एक और तथ्य समझना आवश्यक है। ऐसा जाहिर करने का प्रयास हो रहा है कि जिन वस्तुओं पर पांच प्रतिशत जीएसटी लगाया गया है, उनपर अब से पहले कभी टैक्स नहीं लगा था। यह कहना पूरी तरह से भ्रामक है। जीएसटी जुलाई 2017 में लागू हुआ। तबसे लेकर अभी तक इन चुनिंदा वस्तुओं पर कोई टैक्स नहीं लगा था, लेकिन जीएसटी के अस्तित्व में आने से पहले खाने-पीने से जुड़ी वस्तुओं की एक लंबी सूची है जिनपर वैट जैसे टैक्स लगते थे। कई वस्तुओं पर तो पांच प्रतिशत से ज्यादा टैक्स लोगों को देना पड़ता था। मसलन जीएसटी लागू होने से पहले भी मिल्क पाउडर, चाय, शहद, सोयाबीन तेल, सब्जी बनाने में उपयोग होने वाले खाद्य तेल, चीनी आदि पर छह प्रतिशत टैक्स लगता था। कुछ वस्तुएं तो ऐसी भी थीं जिनपर 12 प्रतिशत तक टैक्स लोगों को देना पड़ता था। जीएसटी की दरों में वर्तमान में हुए बदलावों के बावजूद भी इनमें से कई वस्तुओं पर टैक्स पहले की तुलना में कम देना पड़ेगा। अत: कांग्रेस सहित अन्य दलों का विरोध तर्को की कसौटी पर कमजोर नजर आता है।
टैक्स लगाने की जरूरत : एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि आखिर जीएसटी काउंसिल को इन वस्तुओं पर टैक्स क्यों लगाना पड़ा? दरअसल राज्य के लिए कर संग्रहण उसी तरह अनिवार्य है, जैसे मानव शरीर के लिए सांसों का चलते रहना। तर्कसंगत कर प्रणाली की आलोचना करने वाली नीतियां राज्य की शक्ति को कमजोर करती हैं। महाभारत के शांति पर्व में भीष्म कहते हैं-‘राजा को अपने कोषागार के प्रति सचेत रहना चाहिए।’ यही राज्य के साथ न्याय है। कोविड संकट आने के बाद पिछले लगभग दो-ढाई साल तक देश में अप्रत्यक्ष करों में किसी तरह का बदलाव नहीं हुआ था। राज्यों द्वारा इसका हवाला देकर राजस्व में कमी की बातें जीएसटी काउंसिल की बैठकों में लगातार की जाती रहीं। कर में छूट से हो रहे घाटे को वहन करने में राज्य अपनी अक्षमता जता रहे थे। उनकी चिंता स्वाभाविक भी थी। चूंकि जीएसटी लागू होने से पहले इन्हीं वस्तुओं पर राज्यों को कर अंश मिलता था, जो जीएसटी लागू होने के बाद बंद हो गया। लिहाजा उनकी मांग आनी ही थी। उसी मांग के तहत गहन चर्चा और विमर्श के बाद जीएसटी काउंसिल ने मंत्री समूह के सुझावों के आधार पर टैक्स में ये बदलाव किए हैं। अत: इसको लेकर केंद्र की मोदी सरकार पर ठीकरा फोड़ना समझ से परे है। अगर यह निर्णय गलत है तो इस गलती के लिए कांग्रेस सहित सभी दल जिम्मेदार हैं और अगर सही है तो उसके श्रेय के साझीदार भी सभी दल हैं।
इस मसले पर विरोध का झंडा उठाकर घूम रहे कांग्रेस सहित अन्य दलों को यह भी समझना होगा कि कर व्यवस्था देश के आर्थिक ढांचे के लिए है, न कि किसी दल के राजनीतिक हितों की पूर्ति करने के लिए। अत: ऐसे मसलों पर देश सभी राजनीतिक दलों से गंभीरता की अपेक्षा रखता है। कम से कम अपने नीतिगत रुख को तो कांग्रेस सहित अन्य दलों को स्पष्ट रखना ही चाहिए। एक ही विषय पर दो मत होना विपक्ष के नीतिगत सोच पर सवाल खड़े करता है। इससे विपक्ष के प्रति लोगों के विश्वास में गिरावट ही आएगी।
राजनीतिक दलों के समर्थन और विरोध का आधार उनके नीतिगत विषयों पर केंद्रित होता है। नीतिगत विषयों के आधार पर ही सहमति और असहमति के बिंदु तय होते हैं, लेकिन कांग्रेस पार्टी देश में नीतिविहीन राजनीति की नई परिपाटी शुरू कर चुकी है। आज कांग्रेस का राजनीतिक स्टैंड उसकी राजस्थान सरकार की नीतियों के विरोध में खड़ा नजर आ रहा है। यह दिशाहीन, नीतिविहीन और अनिर्णय की राजनीति न तो देशहित में है और न ही विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस के ही हित में है।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कभी जवाहर लाल नेहरू के लिए कहा था, ‘आप में चर्चिल भी है और चेंबरलेन भी।’ वाजपेयी तब शायद नेहरू के व्यक्तित्व के मिश्रित आचरण का उल्लेख कर रहे थे। किंतु वर्तमान की कांग्रेस के नेताओं के व्यक्तित्व और बयानों में विरोधाभासों की अधिकता है। कांग्रेस का नीतिगत रुख उसके राजनीतिक रुख से अलग दिखाई देता है। दोनों एक-दूसरे के विरोध में खड़ा नजर आते हैं। जीएसटी की दरों में बदलाव पर कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी ने ट्वीट के जरिये उन सामग्रियों की सूची साझा कर इसे ‘हाई टैक्स’ बताया। इसका सारा ठीकरा उन्होंने भाजपा के सिर पर फोड़ दिया। रोचक यह है कि राहुल गांधी के इस ट्वीट को राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बिना देर किए री-ट्वीट कर दिया। जबकि इन वस्तुओं पर टैक्स संबंधी विचार के लिए विशेष रूप से बनाए गए मंत्री समूह में राजस्थान सरकार के प्रतिनिधि भी शामिल थे। राजस्थान सरकार ने इसपर सहमति भी दी। फिर सवाल उठता है कि यह दोहरा चरित्र क्यों?
जब जनता से कर वसूलना हो तो कांग्रेस पार्टी का पक्ष अलग नजर आता है और जब राजनीति करनी हो तो उसका पक्ष बिल्कुल उल्टा हो जाता है। कथनी और करनी में भेद की इससे बड़ी मिसाल हाल की राजनीति में खोजना मुश्किल है। ऐसे में बड़ा सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस पार्टी में नीति और राजनीति का परस्पर कोई संबंध नहीं बचा? क्या कांग्रेस की राजनीति का नीतियों से कोई लेना-देना नहीं है? महंगाई को लेकर राहुल गांधी इन दिनों काफी मुखर हैं। जीएसटी से अलग अगर एक उदाहरण देखें तो पेट्रोल-डीजल की कीमतों में उछाल को लेकर भी खूब राजनीतिक बयानबाजी होती है। राहुल गांधी इस मुद्दे पर मोदी सरकार को ऐसे घेरते हैं मानो पेट्रोल-डीजल की कीमतों को बढ़ाने-घटाने का सर्वाधिकार केंद्र सरकार का ही हो! जबकि इस मामले में भी सही तथ्य इसके उलट है। पिछले साल नवंबर में केंद्र सरकार ने पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद शुल्क घटाया था और राज्यों से भी वैट कम करने का अनुरोध किया था। जिन राज्यों ने वैट में कमी की वहां पेट्रोल-डीजल की कीमतों में गिरावट आई, किंतु राजस्थान, बंगाल, केरल, झारखंड जैसे कई राज्यों ने वैट कम नहीं किया। परिणामस्वरूप वहां ईंधन की कीमतें अन्य राज्यों की तुलना में अधिक रहीं।
कहने का आशय यह है कि अगर राहुल गांधी वाकई महंगाई कम करने को राजस्व अर्जित करने की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं तो वह भी कांग्रेस शासित राज्यों को वैट में कमी करने की अपील किए होते, लेकिन उन्होंने ऐसा कभी नहीं कहा कि राजस्थान, छत्तीसगढ़ या झारखंड सरकारों को भी वैट कम करना चाहिए। इससे जाहिर होता है कि उनकी नीति और राजनीति में भारी विरोधाभास है। उनके सोचने और करने में भारी फर्क है।