News सम्पादकीय

नीयत और नियति


आज हमारा देश जिस स्थितिमें है उसके दो मुख्य कारण हैं। पहला, हमारे यहां कोई सिस्टम नहीं है जो नेताओंकी बातोंका रिकार्ड रखे, उनके आचरण और व्यवहारको लगातार ट्रैक करता रहे, उनका विश्लेषण करता रहे और गलतको गलत तथा सहीको सही करार दे सके। जो सत्तामें हैं, वे कुछ भी कह लेते हैं, कुछ भी कर लेते हैं और जनता चुपचाप देखती रह जाती है। सिस्टमके अभावमें नेताओं और नौकरशाहोंकी कमियोंको पकड़ पाना और उनमें कोई गुणात्मक सुधार कर पाना संभव नहीं है। दूसरी बात है कि कुर्सीपर बैठे लोग, चाहे वह कर्मचारी हों, अधिकारी हों या नेतागण, वह जानते हैं कि यहां झूठ-सचका घालमेल ज्यादा अच्छी तरह काम करता है। सच बोलें तो कुर्सी गंवानी पड़ती है, झूठ और फरेबसे ही नहीं, मीठी-मीठी बातोंसे जनताको भरमाये रखना आसान है, चाहे वह एकदमसे अप्रासंगिक ही क्यों न हों। सरकारमें न सिस्टम है, न सच। नीयतमें कमी तो है ही, लेकिन यह कमी इसलिए भी बढ़ती चली गयी है क्योंकि हमने और हमारे सिस्टमने झूठ बोलनेवाले लोगोंको पुरस्कृत किया है। यह हमारे देशमें ही संभव है कि कोई नेता तालाबके मगरमच्छोंकी परवाह किये बिना या उनको हराकर पढ़ने जाता हो और एंटायर पोलिटिकल साइंस पढ़ ले। यह हमारे देशमें ही संभव है कि एक सालसे चीन हमारी जमीन दबाये बैठा हो लेकिन हमारी छातीका आकार फिर भी छप्पन इंचका बना रहे और हम कुछ ऐप बैन करनेकी घोषणा करके गाल बजाते रहें। यह हमारे देशमें ही संभव है कि फौजमें भारतकी ओरसे लड़ते हुए जीवन लगा देनेवाले लोग भी एनआरसीकी चपेटमें आयें, लेकिन जब चुनाव हो रहा हो तो किसीको एनआरसीकी याद भी न आये।
यह हमारे देशमें ही संभव है कि कोरोनाके कारण सोशल डिस्टैंसिंग और मास्कका उपदेश झाड़ें और चुनावी रैली भी ऐतिहासिक हो। यह हमारे देशमें ही संभव है कि हम अपनी हर असफलताके लिए सत्तर सालोंको ही दोष देते रहें। यह हमारे देशमें ही संभव है कि धर्मके नामपर असीमित घृणा फैलायी जाय और भाईचारेका संदेश दिया जाय। यह हमारे देशमें ही संभव है कि सत्ताधारी दल गोमांसकी बिक्रीपर रोक लगाये, उसके दलके लोग गोमांस बेचने या खानेके शकमें किसीको पीट दें, किसीको देशद्रोही करार दे दें या किसीकी हत्या कर दें, परन्तु खुद उसी सरकारका केंद्रीयमंत्री गोमांस भक्षक हो और वही सरकार गोवामें गोमांसको लेकर चुप्पी साध ले। पाखंड और आक्रामकताका यह दौर कबतक चलेगा, कह पाना मुश्किल है। जिस देशमें झूठ बोलनेके लिए, हर सचको झूठ सिद्ध करनेके लिए और अपने हर झूठको सच सिद्ध करनेके लिए विद्वानोंकी फौज काम करे और जनताको बहकाये, जिस देशमें पढ़े-लिखे लोग भी धर्मकी अफीम चाटकर भीड़का व्यवहार करें, उस देशकी नियतिके बारेमें सोच कर ही रूह कांप जाती है। सिलसिलेवार ढंगसे लोकतांत्रिक संस्थाओंकी हत्या हो रही है और ऐसी परम्पराएं गढ़ी जा रही हैं कि शीर्षपर बैठा नेता बेलगाम हो जाय।
जब एक व्यक्तिके समक्ष गौरवशाली इतिहासवाला एक समर्थ राजनीतिक दल बौना हो जाय, नौकरशाही ही नहीं, चुनाव आयोग और न्यायपालिका भी अर्थहीन हो जायं और देशकी नियतिपर सवाल खड़े हों तब भी नेताकी नीयतकी जय-जयकार होती रहे, यह चमत्कार भारतवर्षमें ही संभव है। तो इसके अलावा और क्या कहा जा सकता है कि इट हैपन्स ओनली इन इंडिया! भ्रष्टाचारकी स्थिति यह है कि पीएम केयर फंडके बारेमें जनता कुछ नहीं जानती। उससे खर्च होनेवाले धनसे कोरोनाकी रोकथामके लिए वेंटिलेटर खरीदनेका दावा किया गया लेकिन जिन कम्पनियोंको वेंटिलेटर बनानेका ठेका दिया गया वह उन्हें इसलिए नहीं मिला कि उनका सामान अच्छा था या सस्ता था, बल्कि इसलिए मिला कि वह सत्ताधारी दल अथवा व्यक्तिके समर्थक थे और उनके बनाये वेंटिलेटर हर टेस्टमें लगातार फेल हो रहे हैं। भ्रष्टाचारकी स्थिति यह भी है कि चीनके ऐप बैन कर दिये गये, हालांकि उस बैनका कोई प्रभाव नहीं है और खुद सत्ताधारी दलके समर्थक लोग भी खुलेआम उन एप्लीकेशन्सका प्रयोग कर रहे हैं, उसी तरह कर रहे हैं। संविधानकी हालत यह है कि इसमें सवा सौ संशोधन हो चुके हैं लेकिन संविधान समीक्षाकी बात करनेवालोंको देशद्रोही मान लिया जाता है। समस्या यह है कि हम भारतीयोंको तो यह भी मालूम नहीं है कि हमारे संविधानमें व्यवस्था है कि यदि संसदके दोनों सदनोंमें सत्ताधारी दलका दो-तिहाई बहुमत हो और आधेसे अधिक राज्योंमें केंद्रकी सत्ताधारी दलकी सरकार हो और प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी, राजीव गांधी या नरेंद्र मोदी जैसा मजबूत व्यक्ति हो तो वह इतना शक्तिशाली हो जाता है कि वह चाहे तो सुप्रीम कोर्टको हमेशाके लिए खत्म कर दे, चुनाव आयोगको खत्म कर दे, संसदको खत्म कर दे और यहांतक कि संविधानको ही खत्म कर दे।
यह कोई मजाक नहीं है। यह एक गंभीर मुद्दा है। लेकिन हम हैं कि इसे समझनेकी कोशिशसे भी इनकार करते हैं। विषयकी गहराईमें जाय बिना हम सिर्फ कुछ उदाहरणोंसे प्रभावित होकर मन बना लेते हैं और फैसले ले लेते हैं। अपने संविधान और अमेरिकी संविधानकी तुलनामें अपने देशकी शासन व्यवस्था और अमेरिकी शासन व्यवस्थाकी तुलनामें भी हमारा यही रवैया है। मोटी बात यह है कि यदि हमारे देशमें अमेरिकी सिस्टमवाली राष्ट्रपति प्रणाली लागू हो, मोदी सीधे पूरे देश द्वारा चुने हुए राष्ट्रपति हों, उनको पांच सालसे पहले कुर्सी जानेका खतरा न हो, उन्हें राज्योंके चुनावमें न जाना पड़े और वह संसदके काममें दखलअंदाजी न कर सकें तथा संसदमें किसी बिलके पास होने या गिर जानेसे उनकी कुर्सी प्रभावित न होती हो तो वह और भी बेहतर प्रशासक सिद्ध हो सकते हैं। तब उनके पास असीमित शक्तियां नहीं होंगी और उन्हें अपने हर कामके लिए संसदसे मंजूरी लेनी पड़ेगी। यह एक आदर्श स्थिति होगी कि संसद उनसे स्वतंत्र हो, पार्टी उनसे स्वतंत्र हो, नौकरशाही उनसे स्वतंत्र हो, न्यायपालिका उनसे स्वतंत्र हो, चुनाव आयोग उनसे स्वतंत्र हो और राजकाजका काम संवैधानिक सिस्टमसे चले। आज हमें गंभीरतासे यह सोचनेकी आवश्यकता है कि हम संसदीय प्रणालीवाला यह लचर संविधान जारी रखें या फिर अमेरिकी तर्जका राष्ट्रपति प्रणालीका संविधान अपनायें अथवा कोई बीचका रास्ता खोज कर मिश्रित प्रणालीका संविधान लागू करनेकी तरफ कदम बढ़ायें। अब समय आ गया है कि हम नेताओंकी नीयतको समझें और अपने देशकी नियतिको सुधारें, अंधेरेको गाली देना बंद करें और दीपक जलायें।