News सम्पादकीय

न्यायिक व्यवस्थामें महिला जजोंका योगदान


अप्रैल २०१८ में सर्वोच्च न्यायालयकी न्यायाधीश नियुक्त होने वाली ऐसी पहली महिला जिन्हें बेंचमें आनेका मौका मिला उन्होंने अपने विदाई समारोहमें लैंगिक विविधता की बात करते हुए इसे समाजके लिए लाभकारी बताया। आपने कहा कि जब न्यायपालिका में पर्याप्त संख्यामें महिलाएं होंगी तब पुरुष एवं महिला जजोंके बीच भेद नहीं किया जाएगा। यानी जबतक इनकी संख्या सीमित या ना के बराबर है तब तक इनके साथ विभेदकी गुंजाइश बनी रहेगी या बन सकती है। आपने लैंगिक आधारपर प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्वकी आलोचना भी की क्योंकि आपका मानना है कि प्रतीकात्मक समानता एवं वास्तविक समानता में फर्क है। प्रश्न यह है कि जब सर्वोच्च न्यायालय की महिला न्यायाधीश भी आज की तारीख में यह मानती हो कि वर्तमान समानता प्रतीकात्मक है तो एक आम महिला का क्या विचार होगा? क्योंकि न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा जी ने भी काम और जीवन के बीच संतुलन के झंझावातों को झेला है। लेकिन एक जीवटता इस बात की कि यदि वह स्वयंको एक महिला जजके रूपमें पेश करेंगी तो उससे अधिक महिलाओं को बारमें आनेका मौका मिलेगा।
ज्ञात हो कि सर्वोच्च न्यायालयमें महिला न्यायाधीशोंकी संख्या बढ़ाने की बराबर दलीलें दी जाती हैं और वकालत भी की जाती है बावजूद इसके न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा स्वतंत्र भारतमें स्थापित सर्वोच्च न्यायालयकी महज सातवीं महिला न्यायाधीश रही है। न्यायमूर्ति एम फातिमा बीबी ३९ वर्ष पहले पहली न्यायाधीश बनी थी और सुजाता वी मनोहर दूसरी। न्यायमूर्ति रूमा पाल, ज्ञान सुधा मिश्रा, रंजना प्रकाश देसाई और आर बानुमति क्रमश: तीसरी चौथी पांचवी और छठी न्यायाधीश बनीं। वर्तमानमें केवल न्यायाधीश इंदिरा बैनर्जी ही एकमात्र महिला जज बची है।
एक तरफ तो महिला जजोंकी संख्या बढ़ानेकी वकालत उनके साथ के न्यायाधीश भी करते हैं वहीं दूसरी तरफ यह प्रश्न भी विचारणीय है कि जब न्यायधीश रूमा पाल का मुख्य न्यायाधीश बनना लगभग तय था तो किन परिस्थितियोंमें उन्हें पत्र ही नहीं मिलता है और वह शपथ ग्रहण समारोह में पहुंच ही नहीं पाती है और न्यायमूर्ति सबरवालको मुख्य न्यायाधीश पदकी शपथ दिला दी जाती है? यह एक ऐसी महत्वपूर्ण घटना है जिसमें गहरी पितृसत्तात्मकता, रूढ़िवादिता और भेदभाव की नकारात्मकता उजागर होती है।
अब यदि इन महिला न्यायाधीशों के कुछ ऐतिहासिक निर्णयोंपर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि जहां रंजना पी देसाई उस पीठमें में थी जिसने अजमल कसाब की फांसीको मुकर्रर किया था वहीं नैना साहनी तंदूर कांडके दोषी सुरेश शर्माकी फांसी की सजा को आजीवन कारावासमें तब्दील भी किया था। न्यायमूर्ति आर बानुमति ने निर्भया कांडके चारों दोषियोंकी फांसीकी सजा पर मुहर लगाई थी और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा ने न्यायाधीश मार्कंडेय काटजूके साथ एक निर्णयमें बलात्कार के दोषियोंपर ५० हजार जुर्माना लगाकर यह निर्णय किया कि इनके द्वारा व्यतीत की गई साढ़े 3 वर्षकी कारावास की अवधि उस स्थितिमें पर्याप्त मानी जाएगी जबकि बलात्कार पीड़िता और दोषी अभियुक्तोंका विवाह हो गया है और अब उनके जीवनकी परिस्थितियां बदल गयी है। कहने का तात्पर्य है कि न्यायालयों द्वारा संपादित निर्णयोंकी लैंगिक आधार पर विवेचनाके कई ऐसे परिणाम निकल सकते हैं जो इस तर्क को पुख्ता करते हैं कि महिला हितोंके पोषण, संरक्षण एवं संवर्धन के लिए किसी महिला न्यायाधीशकी उपस्थिति की तुलनामें एक न्यायाधीशकी संवेदनशीलता ज्यादा प्रभावी हो सकती है। इन सबके बावजूद सामूहिक चेतना, सामूहिक सोच हितोंका संतुलन और आधी आबादीकी पूरी भागीदारी, उनका प्रतिनिधित्व और विश्वको संप्रेषित होने वाला संदेश ऐसे ठोस आधार हैं जिनको पुष्ट करने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि ज्यादासे ज्यादा संख्यामें महिला न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालयमें पहुंचे। वह सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश बन कर एक इतिहास रचें और एक लब्ध प्रतिष्ठित विधि शास्त्री का जो मानक सर्वोच्च न्यायालयके न्यायाधीश होनेकी योग्यताका आधार है उसमें महिला विधिशास्त्रीकी नियुक्ति कर एक स्वर्णिम इतिहास रचा जाए।
उल्लेखनीय है कि न्यायमूर्ति इन्दू मल्होत्रा ने अपने न्यायिक और वादकारी अनुभवपर टिप्पणी करते हुए एक भावनात्मक उद्बोधनमें यह भी कहा कि वह इस न्यायालयको संतोष की पूर्णताके साथ छोड़ रही है। आपके न्यायमूर्ति एवं अधिवक्ता के रूपमें योगदानको याद करते हुए लोगों ने आप के कार्य की भूरि भूरि सराहना की। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अधिवक्ता विकास सिंह ने कहा कि एक वकीलके रूपमें आपने एमिकस क्यूरीके रूपमें सहायता की जिसमें सड़क दुर्घटनाके पीड़ितोंकी मदद करने के लिए गुड समारितन दिशा निर्देश निर्धारित किए गए। न्यायाधीशके रूप में आपने संविधान पीठमें अपनी सहभागिता दिखाई और समलैंगिकता एवं जारकर्म जैसे अपराधोंको असंवैधानिक घोषित करके इतिहास रचा। अभी हाल ही में पटना उच्च न्यायालय ने ओबीसी श्रेणीमें नियमित आधारपर ट्रांसजेंडर समुदायको आरक्षण देनेका सुझाव देते हुए कहा कि सकारात्मक दृष्टिसे लिया गया निर्णय न केवल ट्रांसजेंडर लोगोंकी जीवनशैली और शिक्षाका उत्थान करेगा बल्कि उन्हें मुख्यधारामें लानेके लिए एक अहम कदम भी साबित होगा।
वहीं सबरीमालाके मामलेमें आपने अपनी असहमति दर्ज कराते हुए यह माननेसे इनकार किया कि सभी आयु वर्ग की महिलाओंको लार्ड अयप्पा के मंदिरमें जाने देना चाहिए। आपका मानना था कि इससे भारतकी धर्मनिरपेक्षता प्रभावित होगी यदि हम धार्मिक मामलोंमें भी जनहित याचिकाओं को स्वीकार करते रहेंगे।
यहां यह उल्लेखनीय है कि चिकित्सकीय प्रगति ने यह भी स्थापित करने का प्रयास किया है कि महिलाओं में होने वाली माहवारीका संबंध प्रजनन क्षमता से है ना कि उनकी अशुद्धि से।
अभी हाल ही में गुजरात उच्च न्यायालयने सभी निजी और सार्वजनिक स्थानोंपर महिलाओंके सामाजिक बहिष्कारको प्रतिबंधित करनेका प्रस्ताव दिया है। न्यायालयका मानना था कि मासिक धर्म हमारे समाजमें कलंक है और मौजूदा वर्जनायें लड़कियों और महिलाओंकी भावनात्मक स्थिति, मानसिकता और जीवनशैलीपर प्रभाव डालती हैं और विशेष रूपसे उनके स्वास्थ्यको प्रभावित करती हैं। इस पृष्ठभूमिमें कहा जा सकता है कि न्यायिक निर्णयोंके निष्पादन के समय न्यायाधीशोंके द्वारा की जानेवाली विसम्मत टिप्पणीयां उनकी अपनी निजी सोचकी परिचायक होती हैं जिसमें तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्योंका प्रभाव पड़ता है। प्रगतिशीलताके मायने और आयाम क्या हैं? एवं महिला हित संरक्षण क्या है? इस पर एक महिला न्यायधीश के निर्णय भूमिका और योगदान का क्या प्रभाव पड़ता है? यह शोधका विषय है और इसका कोई सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। एक महिला न्यायाधीशके रूपमें सबरीमालाके निर्णयमें अपनी असहमति दर्ज करानेकी विवेचना एवं तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर उनके महिला कर्मचारी द्वारा लगाए गए लैंगिक उत्पीड़नके आरोपकी जांच हेतु मुख्य न्यायाधीश बोबडे द्वारा गठित ३ सदस्यीय आंतरिक समिति की सदस्यताके दायित्वका विश्लेषण दो भिन्न निष्कर्षोंपर ले जा सकता है।
ऐसेमें यही कहा जा सकता है कि जहां हमें प्रतीकात्मक समानता से वास्तविक समानताकी ओर पहल करना है वहीं यह भी सुनिश्चित करना है कि जब आधी आबादीका प्रतिनिधित्व करनेकी जिम्मेदारी जिन महिलाओंको दी जाती है उनके समक्ष यह बड़ी चुनौती होती है कि वह देख लें कि कहीं उनके निर्णयोंसे वही पुरातन पितृसत्ता तो पुनर्स्थापित नहीं हो रही है। क्योंकि तब अधिकाधिक महिलाओं की नियुक्तिका तर्क बौना होने लगेगा और आधार कमजोर।