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प्रदूषण को लेकर समय पर न चेतने के दुष्परिणाम, मानव स्वास्थ्य पर कई घातक असर के साथ अन्य प्रभाव


दशहरे के बाद उत्तर भारत में हुई बेमौसम बरसात ने प्रदूषण के दुष्प्रभाव को कुछ दिनों के लिए कम अवश्य कर दिया, लेकिन वर्षा बंद होने के बाद से उत्तर-पश्चिम भारत में प्रदूषण की मार को लेकर चर्चा शुरू हो गई है। सर्दियां शुरू होते ही लगभग पूरे उत्तर और पश्चिम भारत में वायु प्रदूषण सिर उठा लेता है और फिर समय के साथ व्यापक होता जाता है।

प्रदूषण की शुरुआत भले ही पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पराली (Parali) जलाने से होती हो, लेकिन धीरे-धीरे उसमें अन्य कारक भी अपना योगदान देने लगते हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में वर्षों से पराली जलाई जा रही है। 15-20 वर्ष पहले तक तो सरकारें पराली जलाने को प्रदूषण का कारण मानती ही नहीं थीं, पर जबसे वैज्ञानिक तरीके से इसे स्थापित किया गया कि कम से कम उत्तर-पश्चिम भारत के एक हिस्से में पराली का धुआं प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक है, तबसे सरकारें इसे लेकर सजग हुईं। इस सजगता के बाद भी समस्या का समाधान नहीं हो पा रहा है।

प्रदूषण के चलते जो तमाम हानिकारक गैसें उत्सर्जित होती हैं, उनके कारण जलवायु परिवर्तन तेज होता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन से कई गंभीर समस्याएं पैदा हो रही हैं-न केवल भारत में, बल्कि पूरे विश्व में। जलवायु परिवर्तन (climate Change) के चलते आने वाले दशकों में फसल चक्र भी संकट में आ सकता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है और हमारी सारी किसानी मानसून की वर्षा पर आधारित है। यह देखा जा रहा है कि असमय वर्षा के कारण किसानों को अपना फसल चक्र बनाए रखना कठिन हो रहा है। भविष्य में ये कठिनाइयां और बढ़ सकती हैं, क्योंकि जलवायु परिवर्तन थमने का नाम नहीं ले रहा है।

पर्यावरण प्रदूषित होने से फसल चक्र प्रभावित होने के साथ और भी कई घातक असर पड़ते हैं। यह मानव स्वास्थ्य पर भी व्यापक असर डालता है। प्रदूषण जनित बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं। जिस तरह सिगरेट का धुआं स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, उसी तरह पराली का धुआं भी बहुत घातक साबित होता है। विडंबना यह है कि पराली को जलने से रोकने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की तमाम सक्रियता सितंबर-अक्टूबर में ही दिखती है। इस बार भी जब पंजाब और हरियाणा में पराली जलने लगी, तब सरकारें चेतीं।

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आखिर वे समस्या के सिर उठाने का इंतजार क्यों करती हैं और बाकी समय हाथ पर हाथ रखकर क्यों बैठी रहती हैं? समय से न चेतने के कारण पराली को जलाने से रोकने में सीमित सफलता ही मिली है। पराली खेतों में न जलाई जाए, इसके विकल्प तो मौजूद हैं, पर उन पर अमल के मामले में सरकारें कितनी हीलाहवाली करती हैं, यह इससे स्पष्ट होता है कि पराली जलाना शुरू हो जाने के बाद केंद्र सरकार ने पराली से पैलेट यानी एक तरह का कोयला बनाने की एक परियोजना शुरू की। यह जब तक जमीन पर उतरेगी तब तक तो पराली जल चुकी होगी। हां, यदि यह परियोजना ठीक से लागू की जाए तो अगले वर्ष तक इसका पूरा लाभ मिल सकता है।

यह किसी से छिपा नहीं कि पराली जलाने वाले किसान और अन्य अनेक लोग प्रदूषण की विभीषिका को अपनी समस्या नहीं मानते। औसत किसान न तो पराली जलाने से होने वाले नुकसान की चिंता करते हैं और न ही गिरते भूजल स्तर के बाद भी अधिक पानी की मांग वाली फसलें उगाने से बचते हैं। आखिर उन इलाकों में धान की खेती क्यों होती है, जहां उसकी खपत नहीं होती? शायद सरकारें अभी तक पराली जलाने और पानी की अधिक मांग वाली फसलें उगाने से पैदा होने वाली समस्याओं से किसानों को सही तरह अवगत नहीं करा सकी हैं।

इसी तरह वे आम आदमी को प्रदूषण रोकने के तौर-तरीके अपनाने के लिए प्रेरित नहीं कर सकी हैं। प्रदूषण (pollution) एक ऐसी समस्या है, जिसका समाधान तभी संभव होगा, जब सरकारों को जनता का भी सहयोग मिलेगा। यह भी समझना होगा कि उत्तर भारत में पराली का धुआं प्रदूषण का एक बड़ा कारक अवश्य है, लेकिन उसके साथ ही वाहनों का उत्सर्जन, सड़कों और निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल, कारखानों से निकलने वाला धुआं आदि भी प्रदूषण बढ़ाने का काम करते हैं।

उत्तर भारत में सर्दियों में जब भी प्रदूषण की बात होती है तो सबसे पहले पराली सबके मस्तिष्क में आती है, लेकिन वाहनों से होने वाले उत्सर्जन, सड़कों से उड़ती धूल और कारखानों से निकलने वाले धुएं पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जाता। वास्तव में इसी कारण प्रदूषण पर प्रभावी लगाम नहीं लग पाती।

यदि यह सोचा जा रहा है कि केवल दंडात्मक उपायों से पराली को जलने से रोका जा सकता है तो यह सही नहीं। इसी तरह यदि शहरी इलाकों में यातायात को सुगम बनाने के लिए अकेले फ्लाइओवर बनाने से सड़कों पर वाहनों का दबाव कम होता तो दिल्ली-एनसीआर में ऐसा न जाने कब हो जाता।

यहां लगातार फ्लाइओवर और अंडरपास बन रहे हैं, लेकिन प्रदूषण नहीं थम रहा है। जिन इंजीनियरों, योजनाकारों और नीति-नियंताओं पर यह जिम्मेदारी है कि वे शहरों के अंदर आधारभूत ढांचे को अधिक बेहतर बनाएं, उन्हें और सजग होना होगा एवं वैज्ञानिक तरीके अपनाकर प्रदूषण नियंत्रण का काम करना होगा। इसकी भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि शहरों में आधारभूत ढांचे के निर्माण की गति तो अत्यधिक धीमी है ही, निर्माण की परंपरागत प्रक्रिया भी प्रदूषण को बढ़ाने वाली है। अभी भी पुरानी तकनीक अपनाकर शहरों के आधारभूत ढांचे का निर्माण किया जा रहा है। इससे भी प्रदूषण फैलता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वच्छ भारत का जो नारा अपने पहले कार्यकाल में दिया था, उसका कुछ समय तक तो असर रहा, पर अब धीरे-धीरे वह समाप्त-सा हो गया है। आम नागरिक प्रदूषण निवारण के मामले में पूरी तरह सरकारों पर निर्भर हैं। अपवाद के तौर पर भारत के कुछ शहर जरूर साफ दिखते हैं, लेकिन अधिकांश शहरों में धूल-धुआं और गंदगी आम है। यदि प्रदूषण की विभीषिका से बचना है तो सरकार और जनता, दोनों को अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभानी होगी। चाहे पराली जलाने पर लगाम लगाने की बात हो या फिर शहरों के अंदर धूल और धुएं पर नियंत्रण की, इन सब पर बहुत तेजी और प्रभावी ढंग से काम करने की जरूरत है।