News सम्पादकीय

बेकाबू कोरोनाकी रफ्तार


कोरोनासे देशमें बिगड़ते हालातका अंदाजा इस बातसे लगा सकते हैं कि इन दिनों हर दिन लगभग तीन लाख नये मरीजोंका आंकड़ा और १६ सौसे अधिककी मौत हो रही है। जीवनकी उम्मीद और जीवनदायनी अस्पताल चरमरा चुके हैं। जरूरी दवाएं और ऑक्सीजन साथ ही वेंटीलेटर भी हांफ रहे हैं। जहां-तहां मरीज बिखरा पड़ा है और एक अदत् बेडकी तलाशमें लोग दर्जनों अस्पतालके चक्कर लगा रहे हैं और जब यह भी नसीब नहीं होता तो एंबुलेंस, ऑटो रिक्शा या खुले आसमानके नीचे मरीज स्वयंको तन्हा, तड़पता हुआ पा रहा है। इतना ही नहीं, श्मशान भी शवोंसे पटे पड़े हैं। यहां भी अंतिम संस्कारके लिए लम्बी कतार लगी है। शव जिस प्रकार दिन-रात जल रहे हैं मानो कोई प्रकाश पर्व चल रहा हो। सभ्यताकी छलांग लगानेवाले मानव हो या उसकी चुनी हुई सरकारें सभी कोरोनाके आगे बेबस हैं। भारतको आजाद हुए लगभग ७५ वर्ष होने जा रहे हैं। इतने लम्बे वक्तके बाद चिकित्साके क्षेत्रमें पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं और जो भी अस्पताल हैं वह भी गुणवत्ताके मामलेमें कहीं अधिक फिसड्डी हैं। हालके वर्षों के आंकड़ेको देखें तो स्वास्थ सुविधाओंपर पहुंच और इनकी गुणवत्ताके मामलेमें भारत १४५वें स्थानपर है। १९५ देशोंकी सूचीमें भारत, चीन, बंगलादेश, श्रीलंका और भूटानसे भी पीछे है। गौरतलब है भारतमें चिकित्सा व्यवस्था बेहद निराशाजनक है यह किसीसे छिपा नहीं है। कोरोनाकी इस दूसरी लहरमें चिकित्सीय व्यवस्था मानो ध्वस्त हो गयी हो या फिर इसकी पोल खुल गयी हो। हालांकि कोरोनाको देशमें आये एक सालसे अधिक हो गया परन्तु सरकारोंने सबक नहीं लिया। यदि वाकईमें इसके साइड इफेक्टको सरकारें पहचान लेती तो स्थिति बेकाबू ही सहीपर यह हृदयविदारक नजारा न होता।
देशमें कोरोनाकी बेकाबू रफ्तारके चलते संक्रमणकी दर दोगुनी हो गयी है। दिल्ली, महाराष्टï्र, कर्नाटक एवं उत्तर प्रदेश समेत दस राज्य संक्रमणके बड़े केन्द्र बनकर उभरे हैं। वैसे पूर्वोत्तरके कुछ राज्योंको छोड़ दें तो पूरा देश कोरोनाकी भट्टीपर बैठा है। योगी राजका उत्तर प्रदेश और राजधानी लखनऊ सहित कई जिलोंमें हालत तबाहीके आर-पार हो गयी है। दिल्ली सरकारने स्थितिको देखते हुए २६ अप्रैलतकके लिए पूरी दिल्लीको लॉक कर दिया। कई प्रान्तोंमें रातका कर्फ्यू और शनिवार, रविवार बंदीका चलन देखा जा सकता है। हालांकि कोरोनाकी यह दूसरी लहर जिस तरह बेकाबू है उसे देखते हुए तमाम कोशिशें कमजोर दिखती हैं। इसके मूल कारणोंपर जाया जाये तो लगता है कि सरकारोंने इसपर कठोर कदम या तो देरसे उठाया है या फिर जनताने नियमोंकी नाफरमानी की है परन्तु समझनेवाली बात यह भी है कि बेकाबू कोरोना लहरके बीच चुनावी मैदान खूब लहलहाते रहे। पश्चिम बंगालमें जिस तरह रैलियोंका अम्बार लगा है उसे देखते हुए तो यही लगता है कि कोरोनाके मामलेमें प्रधान मंत्री और स्वराष्टï्रमंत्री समेत कई नेता इससे बेफिक्र थे। हालांकि अभी यह सिलसिला खत्म नहीं हुआ है। गौरतलब है कि २९४ विधानसभा सदस्यवाला पश्चिम बंगालमें आठ चरणमें मतदान हो रहा है जिसमें पांच चरण हो चुके हैं। हालांकि चार चरणके मतदानके बाद चुनाव आयोगसे यह भी कहा गया कि बाकी बचे हुए चुनावको एक चरणमें सम्पन्न करा दिया जाये लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। दुविधा यह है कि एक ओर कोरोना बेकाबू है तो दूसरी ओर चुनावी जंगमें बाजी मारनेकी फिराकमें रैलियोंमें लाखों-लाखाकी भीड़ आ रही है। जाहिर है यह गैर संवेदनशीलताका न केवल परिचायक है, बल्कि कोरोना जैसी भयावह बीमारीके प्रति उदासीनता भी जताता है।
कोई भी देश तरक्की तभी कर सकता है जब वहांका मानव संसाधन स्वस्थ हो परन्तु इन दिनों हाल उल्टे हैं। अर्थव्यवस्था चरमरायी है और बची-खुची व्यवस्थाएं भी कोरोनाके आगे तौबा कर रही हैं। भारतमें अबतक तीसरी दुनियाकी कही जानेवाली अनेक बीमारियां व्याप्त हैं जो विकसित देशोंमें बरसों पहले विलुप्त हो चुकी हैं। ऐसी बीमारियोंसे लड़ते-लड़ते हमारी स्वास्थ व्यवस्थाएं पहले ही परेशानी झेल रही थीं और अब कोरोना जैसी भीशण बीमारीने एक नयी चुनौती खड़ी कर दी है। कहनेके लिए तो यह दुनियाकी बीमारी है परन्तु ध्यान रहे कि जिसका नागरिक बीमार है समस्या उसी देशकी है। भारत जिस तरह इन दिनों कोरोनामें फंसा है और वह भी तब जब टीकाकरण उफानपर है चिन्ताका विषय है। एक ओर टीकाकरण अभियान लिये हुए है तो दूसरी ओर बीमारी तेजीसे प्रसार कर रही है। हालांकि अभी १२ करोड़को ही वैक्सीन दिया जा सका है। १ मईसे १८ वर्ष या उससे अधिकके सभी लोगोंका टीकाकरण शुरू होगा। उम्मीद कर सकते हैं कि टीका कोरोनाका बचाव है परन्तु जबतक यह सम्पन्न नहीं होता तबतकके लिए सावधानी ही बचाव है। हालांकि सावधानीका सिलसिला टीकाकरणके बाद भी जारी रहेगा तो भारत स्वस्थ रहेगा। बावजूद इसके हालात बेकाबू होते हैं तो चीजें कैसे संभलेंगी। आंकड़े बताते हैं कि भारतमें लगभग आठ लाख बिस्तरवाले कुल २० हजारके आस-पास सरकारी अस्पताल हैं। इसके अलावा प्राथमिक, सामुदायिक केन्द्र एवं उपकेन्द्र भी हजारोंकी तादादमें है। देशकी जनसंख्या १३६ करोड़से अधिक है और बीमारीकी तादाद भी यहां अधिक है। ऐसेमें चिकित्सालयोंकी संख्या और उसकी गुणवत्ता कमतर आंकी जाती रही हैं और जो चिकित्सालय मौजूदा समयमें उपलब्ध हैं उन्हें कई संसाधनोंके आभावमें स्वयं रूग्ण हैं।
गौरतलब है कि भारत स्वास्थ सेवाओंपर सकल घरेलू उत्पाद अर्थात् जीडीपीको कहीं अधिक कम खर्च करनेवाले देशोंमें शुमार है। हालांकि २०२१ के बजटमें इस मामलेमें थोड़ा सुधार दिखता है। देशमें लाखों डॉक्टर्सकी कमी है। विश्व स्वास्थ संघटनके मानकको देखें तो प्रति एक हजार आबादीपर एक डाक्टर होना चाहिए जबकि भारतमें सात हजारकी आबादीपर एक डॉक्टर है। ऐसेमें स्वास्थ समस्या क्यों बढ़ी हुई है इसका अंदाजा आसानीसे लगाया जा सकता है। जनसंख्याके अनुपातमें अस्पतालकी संख्याका कम होना और चिकित्सकोंकी घोर कमी यह राश करती है कि कोरोना जैसी बीमारीसे निबटनेमें हमारी चिकित्सीय व्यवस्था क्यों फिसड्डी सिद्ध हो रही है। सात दशकोंमें कई अच्छे चिकित्सालयोंका निर्माण हुआ परन्तु इसकी गुणवत्ता और मात्राको बनाये रखनेमें सरकारें उतनी सफल दिखाई नहीं देती हैं और आज जब देश एक महामारीसे जूझ रहा है तो जनतासे वोट बटोरनेवाली सरकारें उनकी वह मदद नहीं कर पा रही हैं जो उन्हें ईमानदारीसे करनी चाहिए। ऐसेमें जरूरी है कि चिकित्साको प्राथमिकता दिया जाये और जन-स्वास्थको ध्यानमें रखकर सरकारें गुणवत्तासे भरे चिकित्सालय बनाये न कि किसी बीमारी, परेशानीमें सिर्फ नसीहत दें और जनता तड़प-तड़प कर मर जाये। यह सरकारपर कर्ज है कि जनताको स्वस्थ रखे और देशको नयी ऊंचाई दे जहां सबके लिए, सब कुछ हो।