भारतवंशी द्वारा बनाये गये हेलीकाप्टरको इसी १८ फरवरीको सात माहकी लगातार यात्राके बाद पर्सिवरेंस मार्स रोवरको रात करीब २.३० बजे मंगल ग्रहके जेजेरो क्रेटर इलाकेमें सफलतापूर्वक लैंड कराया। इसी रोवरपर उसके पेटके ठीक नीचे इंजीन्यूटी हेलीकॉप्टरको कुछ इस तरह बांधकर कवर किया गया जैसे कंगारू अपने बच्चेको छिपाकर रखता है। मंगलकी सतहपर रोवरमें कवर हेलीकॉप्टरने पहली बार इसी ५ अप्रैलको अपनी खोलसे बाहर आकर उसके लिए नये यानी मंगल ग्रहकी सतहको आशियाना बनाया। इसके १४ दिनों बाद १९ अप्रैलको जब इंजीन्यूटी हेलीकॉप्टरने पहलेसे तय ३० सेकेण्डकी बहुत ही कठिन लेकिन सफल उड़ान दस फीटकी ऊंचाईतक भरी तो जैसे दुनियाभरके वैज्ञानिक झूम उठे। जब दोबारा इसने १८वें दिन २२ अप्रैलको दूसरी सफल उड़ान भरी जो ५१.९ सेकेण्डमें १६ फीटकी ऊंचाईकी थी तो विश्वास हो गया कि भविष्यमें भी सफलता तय है। अब आगे भी हेलीकॉप्टर मंगलके सबसे दुर्गम जेजेरो क्रेटर इलाकेकी कई उड़ानें भरेगा।
मंगल ग्रहके दिनोंके मुताबिक ३१ दिनोंमें कई उड़ानें होंगी। लेकिन कोई भी उड़ान १६.५ फीटसे ज्यादा ऊंची और एक बारमें ३०० फीटसे ज्यादाकी परिधिवाली नहीं होगी। इस सफलतापर नासाने खुद ही बताया कि धरतीसे बहुत दूर किसी दूसरे ग्रहपर, धरतीसे ही भेजे गये निर्देशोंसे हुई यह पहली उड़ान थी। इसे कर दिखानेके पीछे भारतीय मस्तिष्क है। उस भारतवंशी इंजीनियरकी मेहनतसे ही यह सफलता मिली जिनका नाम डा. जे. बॉब बालाराम है। नासाके जेट प्रोफेशनल्स प्रयोगशालामें सेवारत बालाराम मार्सके इंजीन्यूटी हेलीकॉप्टर मिशनके चीफ इंजीनियर हैं। यकीनन भारतीयोंका सीना गर्वसे ऊंचा करनेवाले मूलत: दक्षिण भारतीय बालारामकी बचपनसे ही रॉकेट, स्पेसक्राफ्ट और स्पेस साइंसमें गहरी रुचि थी। जब वह छोटे थे तभी उनके चाचाने अमेरिकन काउंसलेटको चिट्ïठी लिखकर नासा और स्पेस एक्सप्लोरेशनपर जानकारियां मांगी। नासाने भी बालारामकी विलक्षण प्रतिभाको पहचानते हुए सारी जानकारियां साझा की। बस यहींसे बालारामकी जिज्ञासाएं बढ़ती गयीं और वह नासातक जा पहुंचे। वहां उन्होंने काम करनेके लिए एक पूरी टीम बनायी और नेतृत्व किया। आईआईटी मद्राससे पढ़े बालाराम पिछले बीस वर्षोंसे इसीपर अपनी टीमके साथ काम कर रहे थे। करीब एक किलो ८०० ग्राम वजनके इस हेलीकॉप्टरको एक टन यानी १००० किग्रा वजनी पर्सिवरेंस मार्स रोवरके साथ इसी १८ फरवरीको मंगलके जेजेरो क्रेटरमें उतार गया जो वहांका अत्यंत दुर्गम इलाका है। ऐसेमें पर्सिवरेंस मार्स रोवरकी लैण्डिंगकी सफलतापर पूरी दुनियाकी निगाहें स्वाभाविक थीं। जिस दुर्गम इलाकेमें लैण्ड कराया गया वहां पहले एक ऐसी नदी बहनेके संकेत मिल चुके हैं जो एक झीलमें मिलती थी। बादमें उसी जगह पंखेके आकारका डेल्टा बन गया। वैज्ञानिकोंको उम्मीद है कि यहां शायद जीवन मिले! पर्सिवरेंस मार्स रोवर और इंजीन्यूटी हेलीकॉप्टर मंगलपर कार्बन डाईऑक्साइडसे ऑक्सीजन बनानेका काम करनेके साथ मौसमका अध्ययन करेंगे, ताकि भविष्यमें यहां पहुंचनेवाले अंतरिक्ष यात्रियोंको आसानी हो सके।
इस हेलीकॉप्टरके अन्दर सौर्य ऊर्जासे चार्ज होनेवाली बैटरी लगी हैं। इसके पंखोंके ऊपर सोलर पैनल भी हैं। पैनल जितना गर्म होगा उतनी ताकत बैटरीको मिलेगी। हेलीकॉप्टरके अन्दर भी निश्चित गर्मी बनाये रखनेका प्रबंध है, ताकि मंगलके बदलते तापमानसे कोई फर्क न पड़े। वहां दिनमें ७.२२ डिग्री सेल्सियस तापमान रहता है जो रातमें घटकर माइनस ९० डिग्री सेल्सियसतक चला जाता है। इंजीन्यूटी मार्स हेलीकॉप्टरको हर लैण्डिंगके बाद दोबारा चार्ज होनेके लिए पर्याप्त समय दिया जायगा। इंजीन्यूटी हेलीकॉप्टर और रोवर मंगलपर जीवनकी जानकारी जुटायगा। इसमें लगे सुपर सैनिटाइज्ड सैंपल, रिटर्न ट्यूब्स चट्टानोंके नमूने जुटायंगे जिनके विश्लेषणसे मंगलपर प्राचीन कालमें भी मानव जीवन होनेकी संभावनाओं संबंधी सुबूतोंको ढूंढ़ा जा सकेगा। नासा लगातार मंगलपर जीवनकी संभावनाओंको जुटानेमें लगा हुआ है। इसमें लगे उपकरण वहांके वायुमण्डल, जलवायु, भूगर्भ एवं वहांकी मिट्टी एवं चट्टानोंका पता लगानेमें सक्षम थे। २००४ में मंगलके पर्यवेक्षणके लिए स्पिरिट एण्ड अपॉर्च्युनिटी नामके जुड़वा रोवर प्रक्षेपित किये गये, जिनमें स्पिरिट २०१० तक तथा अपॉर्च्युनिटी २०१८ अंततक सक्रिय था। स्पिरिटने गुसेव नामक ज्वालामुखीपर बनी सूखी झीलसे पानीका पता लगाने जबकि अपॉर्च्युनिटीने गहरी खाइयों तथा नम एवं सूखे युगोंके साथ रेडियो संकेतोंसे यह जाननेकी कोशिशकी मंगलका भीतरी भाग ठोस है। निश्चित रूपसे मार्स पर्सिवरेंस रोवर और इंजीन्यूटी हेलीकॉप्टर मिशन मंगलपर जीवनकी खोजके लिए मीलका पत्थर साबित होगा। वहीं दूर ग्रहोंपर पहुंचना और वहां अपनी मनमर्जीसे धरती जैसे उड़ना एवं लैण्ड करना बड़ी उपलब्धिके साथ दूसरे ग्रहोंके रहस्योंको जानने तथा वहांपर अतीतका कथित मानव जीवन, काल्पनिक एलियंसकी हकीकतके साथ भविष्यमें जीवनकी संभावनाओंके लिए मीलका पत्थर साबित होगा। उल्लेखनीय है कि नासाके इसी महत्वपूर्ण मिशनकी गाइडेंस, नैविगेशन एवं कंट्रोल ऑपरेशंसको लीड करनेवाली भी भारतीय मूलकी वैज्ञानिक डा. स्वाति मोहन हैं। इसमें कोई दो मत नहीं कि नासाकी सफलताका पूरा श्रेय अमेरिकाको ही जायगा लेकिन हमें इतना तो समझना ही होगा कि काश भारत तमाम संभावनाओंके होते हुए भी विश्वगुरु बन पाता।