सम्पादकीय

मंत्रिमण्डल विस्तारके मायन


नीरज कुमार दुबेे   

मंत्रिमंडलके विस्तार और फेरबदल करके प्रधानमंत्री मोदीने कुछ बड़े संदेश दिये हैं। पहला, व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा हो उसके कार्य प्रदर्शनकी गुणवत्तासे कतई समझौता नहीं किया जायेगा। दूसरा, किसी खास मंत्रालयका मंत्री यदि जनताकी अपेक्षाओंपर खरा नहीं उतरता तो उसके खिलाफ उपजी नाराजगीका असर पूरी सरकारपर नहीं पडऩे दिया जायेगा। तीसरा, सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास मूलमंत्रपर आगे बढ़ते हुए सरकारमें समाजके सभी वर्गों और देशके हर कोनेकी पर्याप्त भागीदारी सुनिश्चित की जायेगी। चौथा, बेहतरीन कार्य करनेवालोंको पुरस्कृत किया जाता रहेगा। पांचवां, पार्टी संघटनके लिए निष्ठापूर्वक काम करनेवालोंको बड़े अवसर दिये जायंगे। मोदी मंत्रिमंडलके विस्तारसे ज्यादा लोगोंकी रुचि यह जाननेमें रही कि रविशंकर प्रसाद, डा. हर्षवर्धन, प्रकाश जावड़ेकर और बाबुल सुप्रियो जैसे दिग्गज मंत्रियोंकी मंत्रिमंडलसे क्यों छुट्टी कर दी गयी। मंत्रिमंडलसे जो अन्य लोग हटाये गये हैं उनके नामोंपर शायद ही किसीको आश्चर्य हुआ हो, बल्कि अभी तो कई और ऐसे मंत्री बाकी हैं जिनका कार्य प्रदर्शन संतोषजनक नहीं है लेकिन चूंकि वह उन राज्योंसे हैं जहां साल २०२२ में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसेमें वहांके जातिगत समीकरणोंको देखते हुए उनकी कुर्सी फिलहाल बच गयी है।

रविशंकर प्रसाद, डा. हर्षवर्धन, प्रकाश जावड़ेकरकी मंत्री पदसे छुट्टी सभी लोगोंके लिए साफ संकेत है कि कोई अपने बड़े नामकी वजहसे ही बड़े पदपर नहीं बैठा रह सकता। काम भी करके दिखाना होगा। दरअसल साल २०१४ और २०१९ के लोकसभा चुनाव पूर्वके लोकसभा चुनावोंसे इस मायनेमें अलग थे कि जनताने एक तरहसे अपने सांसदको चुननेके लिए नहीं, बल्कि सीधे प्रधान मंत्रीको चुननेके लिए वोट दिया था। ऐसेमें नरेंद्र मोदी अपने मंत्रिमंडलमें किसको मंत्री बनाते हैं और किसे हटाते हैं इससे ज्यादा असर नहीं पड़ेगा क्योंकि जनता वादे पूरे होनेकी स्थितिमें मोदीको सराहेगी या वादे पूरे नहीं होनेकी स्थितिमें उनसे ही सवाल करेगी। जहांतक रविशंकर प्रसादकी बात है तो उन्हें भी यकीन नहीं होगा कि कानून, आईटी, कम्युनिकेशन जैसे बड़े मंत्रालय संभालते-संभालते वह अचानकसे मंत्री पदसे हाथ धो बैठेंगे। लोगोंको विश्वास नहीं हो रहा है कि जो मंत्री राजनीतिक और नीतिगत मामलोंमें लगातार सरकारका पक्ष रखनेके लिए मीडियाके बीच उपस्थित होते रहते थे उन्हें क्यों हटा दिया गया। कहा जा रहा है कि ट्विटरसे लड़ाई रविशंकर प्रसादको भारी पड़ गयी। यह सही है कि विदेशी सोशल मीडिया कंपनियोंसे जिस तरह रविशंकर प्रसाद भिड़े उससे भारत एक अजीब स्थितिमें फंस गया क्योंकि एक ओर तो हम विदेशी कंपनियोंको अपने यहां निवेशका न्यौता दे रहे हैं दूसरी ओर ऐसा संदेश भी गया कि हम उन्हें भारतके कानूनोंसे डरा भी रहे हैं। यह माना गया कि रविशंकर प्रसाद इस मुद्देसे और आसान तरीकेसे निबट सकते थे। रविशंकर प्रसादके खिलाफ लेकिन सिर्फ यही मामला नहीं था। दूरसंचारमंत्रीके रूपमें न तो वह बीएसएनएलका भला कर पाये, न ही प्रधान मंत्रीके महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट भारतनेटको तेजीसे आगे बढ़ा पाये। यही नहीं जिस तरहसे कोरोना महामारीकी दूसरी लहरके दौरान केंद्र सरकारको कभी हाईकोर्ट तो कभी सुप्रीम कोर्टकी फटकार पड़ती रही उससे भी यही संदेश गया कि कानून मंत्रालय सही तरीकेसे सरकारका पक्ष अदालतोंमें नहीं रख पा रहा है। इसके अलावा यह भी माना जा रहा है कि कानूनमंत्रीके तौरपर रविशंकर प्रसादके रिश्ते न्यायिक तंत्रके साथ सहज नहीं रहे और बड़ी संख्यामें जजोंकी रिक्तिको भरनेके लिए भी मंत्रालय पर्याप्त कदम नहीं उठा पाया था।

प्रकाश जावड़ेकर जो कि मंत्री होनेके साथ सरकारके मुख्य प्रवक्ता भी थे, उन्हें भी यूं रुखसत कर दिये जानेका आभास नहीं होगा। उनके खिलाफ एक-दो नहीं कई बातें गयीं। प्रधान मंत्रीने पर्यावरण सुरक्षाके लिहाजसे कई कदम उठाये जैसे कि सिंगल यूज प्लास्टिकपर रोककी बात हुई लेकिन यह मंत्रालय प्रधान मंत्रीके कदमोंको आगे ही नहीं बढ़ा पाया। पर्यावरणमंत्रीके रूपमें जावड़ेकर जो ड्राफ्ट लेकर आये उसका पर्यावरणविदोंने जमकर विरोध किया। यही नहीं सूचना और प्रसारणमंत्रीके रूपमें उनका काम था कि कोरोनाकी दूसरी लहरके दौरान जब देश महामारीसे जूझ रहा था तो सरकारकी ओरसे किये जा रहे कार्योंको प्रमुखतासे बताया जाये लेकिन वह ऐसा करनेमें विफल रहे, नतीजतन विपक्ष सरकारको घेरता रहा और सरकारकी छवि खराब होती रही। यही नहीं, विदेशी मीडियामें भी जिस तरह भारत सरकारकी नाकामियोंकी खबरें छपीं उसका भी प्रतिवाद सूचना प्रसारण मंत्रालय सहीसे नहीं कर पाया। यही नहीं, जावड़ेकर लगातार नीतियां बनानेका मुद्दा भी टालते ही रहे। स्वास्थ्यमंत्री पदसे डा. हषर्वधनने अपनी छुट्टीकी कल्पना नहीं की होगी लेकिन प्रधान मंत्रीकी निगाहमें वह अप्रैलमें ही आ गये थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि कोरोना महामारीकी पहली लहरके दौरान डा. हर्षवर्धनका काम संतोषजनक रहा लेकिन कह सकते हैं कि कोरोनाने पहली लहरके दौरान तो भारतमें अपना रौद्र रूप दिखाया ही नहीं था।

डा. हर्षवर्धन कोरोनाको हरानेका श्रेय लेनेको इतने आतुर थे कि इस साल ७ मार्चको उन्होंने भारतमें कोरोना महामारीका अंत होनेकी बाततक कह दी थी। परन्तु मार्च महीनेके अंतमें कोरोनाके नये मामले इतनी तेजीसे बढऩे शुरू हुए कि अप्रैलतक तो यह चरमतक पहुंच चुका था। अप्रैल अंततक जिस प्रकार संसाधनोंकी कमीसे भारत जूझ रहा था उस समयतक डा. हर्षवर्धन एक विफल मंत्रीके रूपमें पहचाने जाने लगे थे। माना जाता है कि प्रधान मंत्री मार्चके मध्यमें ही समझ गये थे कि डा. हर्षवर्धन अकेले कुछ नहीं कर पायंगे इसलिए प्रधान मंत्री कार्यालय और नीति आयोगने कमान संभाली। १७ मार्चको प्रधान मंत्रीने कोरोनाके बढ़ते मामलोंको लेकर मुख्य मंत्रियोंके साथ आनलाइन संवाद किया और इस बैठकमें स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषणने प्रस्तुतिकरण दिया और स्वराष्टï्रमंत्रीने मुख्य मंत्रियोंसे उन जिलोंपर विशेष ध्यान देनेको कहा जहां मामले बढ़ रहे थे। यही नहीं, प्रधान मंत्रीने अप्रैल और मई महीनेमें कोरोना महामारीसे जुड़े विभिन्न मुद्दों या संसाधनोंको लेकर तमाम बैठकें कीं लेकिन इनमेंसे अधिकतर बैठकोंमें डा. हर्षवर्धन नहीं थे। यही नहीं माना जाता है कि प्रधान मंत्रीको यह बात भी रास नहीं आ रही थी कि विपक्ष द्वारा सवाल उठाये जानेपर डा. हर्षवर्धन समस्याओंको दूर करनेकी बात कहनेकी बजाय विपक्ष शासित राज्य सरकारोंको ही घेरनेमें जुटे थे। एक बार तो प्रधान मंत्रीकी मुख्य मंत्रियोंके साथ बैठकसे एक दिन पहले ही डा. हर्षवर्धनने विपक्षपर निशाना साध कर माहौल गर्म कर दिया था।

नये स्वास्थ्यमंत्री मनसुख मंडावियाने अपने पहले संवाददाता सम्मेलनमें जिस तरह राज्योंको साथ लेकर चलनेकी बात कही है उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि डा. हर्षवर्धन ऐसा कर पानेमें विफल रहे थे और उसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। रेलमंत्रीके रूपमें भले पीयूष गोयलके खातेमें कई उपलब्धियां हों लेकिन उनके कार्यकालमें जनताकी नाराजगी खूब रही। आम जनताके परिवहनका साधन रेलवे उनके कार्यकालमें इतना महंगा हो गया है कि लोग बसोंसे यात्राको महत्व भी देने लगे हैं। श्रममंत्रीके रूपमें संतोष गंगवारका कार्यकाल पूरी तरह विफल रहा क्योंकि रोजगार प्रदान करनेके जिस बड़े वादेके साथ मोदी सरकार सत्तामें आयी थी वह पूरा नहीं हो पाया है। उसपरसे श्रममंत्रीके पास कभी आंकड़े भी नहीं होते थे कि कोरोनाने कितनोंको बेरोजगार कर दिया या सरकारने रोजगारके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कितने अवसर मुहैया कराये। यही नहीं, श्रम सुधार कानूनोंको लेकर भी वह सरकारका पक्ष सही ढंगसे नहीं रख पा रहे थे। मंत्रीके रूपमें उनकी निष्क्रियता साफ झलकी क्योंकि बड़ेसे बड़ा मुद्दा आ जाये, संतोष गंगवार चुप्पी साधे रहते थे या परिदृश्यसे गायब रहते थे। अपने पैरोंपर कुल्हाड़ी उन्होंने खुद तब चला दी जब दूसरी लहरके दौरान उन्होंने पत्र लिखकर योगी आदित्यनाथ सरकारकी नाकामियां गिना दीं। इसके अलावा रमेश पोखरियाल निशंकका स्वास्थ्य तो गड़बड़ चल ही रहा है इसके अलावा वह राष्ट्रीय शिक्षा नीतिको सही ढंगसे नहीं रख पाये। बाबुल सुप्रियोको लोकप्रिय चेहरा माना गया था। वह दो बार लोकसभाका चुनाव जीते लेकिन दोनों ही बार मोदीके नामपर वोट पड़ा था जैसे ही बाबुलने अपने चेहरेपर वोट लेनेका प्रयास किया वह विधानसभा सीट भी नहीं जीत पाये। इसके अलावा पर्यावरण राज्यमंत्रीके रूपमें उनकी लगातार निष्क्रियता भी उनकी रवानगीकी वजह बनी।