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मुंबई: केंद्रीय और राज्य जांच एजेंसियों में टकराव, राजनीति का अखाड़ा


मुंबई, वैसे तो कई राज्यों का केंद्र के साथ टकराव चल रहा है, लेकिन महाराष्ट्र में सामने आ रहे घटनाक्रम चिंता में डालने वाले हैं। ताजा मामला शाह रुख खान के पुत्र आर्यन खान की गिरफ्तारी के बाद शुरू हुआ है। राज्य सरकार के एक मंत्री नवाब मलिक की एनसीबी अधिकारी समीर वानखेड़े पर की गई टीका-टिप्पणी ने अब सियासी रंग लेना शुरू कर दिया है। यह मामला एक अभिनेता पुत्र की नशाखोरी से शुरू हुआ था, जो फिल्म इंडस्ट्री में एक सामान्य बात है।

लेकिन नवाब मलिक ने जब इसे अपने दामाद की एनडीपीएस एक्ट में हुई गिरफ्तारी से जोड़कर एनसीबी अधिकारी के जाति प्रमाणपत्र पर ही सवाल उठा दिया तो यह मामला अब जातीय रंग लेने लगा है। अब इसमें राज्य की एक प्रमुख दलित पार्टी रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआइ) के अध्यक्ष एवं केंद्रीय मंत्री रामदास आठवले के साथ-साथ केंद्रीय अनुसूचित जाति आयोग भी कूद पड़ा है। यह मामला देश की एक बड़ी समस्या ‘युवाओं में बढ़ती नशाखोरी की लत’ पर काबू पाने से भटक कर सियासी दांवपेच में फंसता दिखाई देने लगा है।

महाराष्ट्र सरकार की ओर से मुंबई पुलिस ने भी एनसीबी अधिकारी समीर वानखेड़े के विरुद्ध कई मामलों में जांच शुरू कर दी है। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि वानखेड़े को अपनी गिरफ्तारी पर रोक लगाने के लिए मुंबई उच्च न्यायालय तक की शरण लेनी पड़ी। इसी मामले में स्वतंत्र गवाह बनाए गए दो व्यक्तियों में से एक प्रभाकर सैल ने, दूसरे व्यक्ति किरण गोसावी पर कई गंभीर आरोप लगा दिए। इसके बाद पुणो पुलिस ने गोसावी को तीन साल पुराने फर्जीवाड़े के एक मामले में गिरफ्तार कर लिया है। अब पुणो पुलिस ऐसे और लोगों को केस दर्ज कराने के लिए प्रोत्साहित करती दिख रही है, जिनके पास गोसावी के विरुद्ध कोई शिकायत हो। दूसरी ओर समीर वानखेड़े के विरुद्ध जांच कर रही उन्हीं के विभाग की विजिलेंस टीम ने जब गोसावी पर आरोप लगानेवाले प्रभाकर को बयान दर्ज कराने के लिए बुलाया तो वह एनसीबी की विजिलेंस टीम के पास आने से कतरा गया। यानी एक आरोप लगाकर मीडिया की सुर्खियां बटोरनेवाला प्रभाकर अब खुद ही अपने आरोपों को सत्य साबित करने के लिए प्रतिबद्ध नहीं दिखाई दे रहा है। जबकि उसके आरोपों ने एनसीबी की छवि एवं कार्यप्रणाली को जरूर कठघरे में खड़ा कर दिया।

देखा जाए तो केंद्र एवं महाराष्ट्र सरकार के बीच टकराव का यह पहला मौका नहीं है। इसकी शुरुआत पिछले वर्ष अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत के बाद ही हो गई थी। तब मुंबई पुलिस ने जल्दबाजी में कदम उठाते हुए आत्महत्या का मामला दर्ज कर फिल्म इंडस्ट्री के कुछ नामीगिरामी लोगों को पूछताछ के लिए बुलाना शुरू कर दिया था। तब इसी महाविकास आघाड़ी (मविआ) सरकार पर उसी तरह फिल्म इंडस्ट्री को बदनाम करने के आरोप लगने लगे थे, जैसे आज खुद मविआ सरकार के लोग एनसीबी और केंद्र सरकार पर आरोप लगाकर कह रहे हैं कि भाजपा यहां से फिल्म इंडस्ट्री को उजाड़कर उत्तर प्रदेश ले जाना चाहती है। मजे की बात यह है कि तब महाविकास आघाड़ी सरकार की ओर से ये सारी कार्रवाइयां मुंबई के तत्कालीन पुलिस आयुक्त परमबीर सिंह कर रहे थे, जिनके विरुद्ध आज मविआ सरकार ने ही गैरजमानती वारंट एवं लुक आउट नोटिस जारी कर रखा है। उसी दौरान सुशांत के परिवार की मांग, बिहार सरकार की सिफारिश एवं सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर सुशांत की मौत की जांच सीबीआइ को सौंप दी गई थी। यह घटनाक्रम भी राज्य सरकार की चिढ़ का एक कारण बना। राज्य सरकार उन दिनों भी सुशांत की मौत की जांच मुंबई पुलिस के ही हाथों में रखना चाहती थी। दुर्योग से सीबीआइ दो साल की जांच के बाद भी इस मामले में अपनी कोई रिपोर्ट नहीं पेश कर सकी है।