सर्वोच्च न्यायालयने शुक्रवारको बसपा विधायक मुख्तार अंसारी प्रकरणमें महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए पंजाब सरकारको उन्हें दो सप्ताहके अन्दर उत्तर प्रदेश पुलिसको सौंपनेका निर्देश दिया है। साथ ही शीर्ष न्यायालयने पंजाब सरकारकी दलीलोंसे असहमति जताते हुए अंसारीकी याचिका भी खारिज कर दिया। मुख्तार अंसारी प्रकरणमें लम्बे समयसे पंजाब और उत्तर प्रदेशकी सरकारोंके बीच टकरावकी स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। मुख्तार इस समय एक छोटेसे प्रकरणमें पंजाबकी रोपड़ जिलेमें बंद हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस उन्हें लेनेके लिए कई बार पंजाब गयी लेकिन स्वास्थ्य कारणोंका उल्लेख कर वह पंजाबसे नहीं आ सके। इस प्रकरणमें सियासी जंग भी छिड़ गयी थी लेकिन शुक्रवारको शीर्ष न्यायालयने उत्तर प्रदेश सरकारके पक्षमें अपना फैसला सुनाया। इस फैसलेको राज्यकी योगी आदियत्नाथ सरकारकी बड़ी जीतके रूपमें देखा जा रहा है। सांसदों और विधायकोंसे सम्बन्धित प्रयागराजकी विशेष अदालतमें अनेक मुकदमें लम्बित हैं। मुख्तारके खिलाफ इस अदालतमें दस मुकदमें हैं जिनका निस्तारण अभीतक नहीं हो पाया है। अब इसकी सम्भावनाएं बढ़ गयी हैं कि मुख्तार अंसारीके उत्तर प्रदेशमें आनेके बाद उनसे सम्बन्धित मामलोंको त्वरित निस्तारणकी प्रक्रिया शुरू हो सकती है। इनमें कुछ संगीन मामले भी हैं। अब उत्तर प्रदेश सरकारपर निर्भर है कि इन मुकदमोंके निस्तारणमें वह कितनी सक्रियता दिखाती है लेकिन एक बात तो स्पष्टï है कि इसमें राज्य सरकार कोई शिथिलता बरतनेवाली नहीं है। सर्वोच्च न्यायालयके ताजे फैसलेके बाद दागदार छविवाले जन-प्रतिनिधियोंकी मुश्किलें बढ़ सकती हैं। इसका दूरगामी प्रभाव पडऩा स्वाभाविक है। वस्तुत: राजनीतिमें दागी छविके जन-प्रतिनिधियोंके बढ़ते महत्वसे न केवल लोकतांत्रिक मूल्योंपर आघात पहुंचा है, बल्कि राजनीतिमें शुचितापर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्थासे ऐसे दागदारोंको पृथक करना समयकी मांग है। इसे दलगत भावनासे ऊपर उठकर देखनेकी जरूरत है। ऐसे मामलोंको लेकर किसी प्रकारकी राजनीतिका कोई अभिप्राय नहीं है। स्वस्थ और स्वच्छ लोकतंत्रको प्रतिष्ठिïत करनेकी दिशामें सभी राजनीतिक दलोंको गम्भीरतासे विचार करनेकी जरूरत है। संसद और विधानमण्डलोंमें दागी छविवाले जन-प्रतिनिधियोंकी लम्बी सूची है और ऐसे लोगोंके मुकदमे लम्बे समयसे लम्बित हैं, जिन्हें शीघ्रतासे निस्तारित करनेकी आवश्यकता है।
भेदभाव अनुचित
स्त्री और पुरुष ईश्वरकी कृति है। इनमें भेदभाव अनुचित ही नहीं, बल्कि संविधानकी मूल भावनाके विपरीत है। दुर्भाग्यका विषय है कि आजादीके ७४ साल बाद भी महिलाओंको बराबरीका दर्जा नहीं मिल सका है, जबकि वे पुरुषोंसे कंधासे कंधा मिलाकर दक्षताके साथ हर क्षेत्रमें अपना परचम लहरा रही हैं फिर भी उनको पुरुषोंसे कम आंका जाना किसी भी दृष्टिïसे उचित नहीं है। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालयको बार-बार सख्त टिप्पणी करनी पड़ती है। न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूडकी अध्यक्षतावाली दो सदस्यीय पीठने सेनामें महिला अधिकारियोंके स्थायी कमीशनसे जुड़ी विभिन्न याचिकाओंकी सुनवाई करते हुए यह माना है कि सेनामें शार्ट सर्विस कमीशनमें तैनात महिलाओंकी क्षमताके आंकलनका जो तरीका अपनाया जाता है, वह मनमाना और भेदभावपूर्ण है। न्यायालयने अपने आदेशमें कहा है कि जो महिला अधिकारी सितम्बर २०२० में हुए स्पेशल नम्बर पांच सेलेक्शन बोर्डमें ६० प्रतिशका कटआफका ग्रेडका मानदण्ड पूरा करती है, वे स्थायी कमीशन पानेके लिए योग्य हैं। समानताकी सतही धारणा संविधानकी मूल भावनाके अनुरूप नहीं है। यह केवल बराबरीको सांकेतिक बनानेका प्रयास है। न्यायालयका यह कहना भी उचित है कि बराबरीका समाज स्थापित करनेके लिए सोच और शब्द दोनोंमें बदलाव जरूरी है, क्योंकि हमारे समाजमें आज भी पितृसत्ता हावी है। इस सोचको बदलनेकी जरूरत है। यह बदलाव वर्षोंसे महिलाओंको मिलनेवाले अवसरसे वंचित रखनेकी गलतियोंको ठीक करनेके लिए जरूरी है। सर्वोच्च न्यायालयने पिछले साल १७ फरवरीको सेनामें महिलाओंको स्थायी कमीशन देनेका ऐतिहासिक आदेश दिया था लेकिन दुर्भाग्य है कि महिला अधिकारियोंको आज भी न्यायालयका दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है। सर्वोच्च न्यायालयके आदेशका पालन सुनिश्चित होना ही चाहिए। बदलते समयके साथ नयी सोच विकसित कर महिलाओंके साथ भेदभावपूर्ण व्यवस्थाको बदलना होगा, तभी राष्टï्रका चहुंमुखी विकास सम्भव होगा।