आनन्द शुक्ल
उत्तर प्रदेशके हालके क्षेत्र एवं जिला पंचायत अध्यक्षोंके चुनावमें सत्तारूढ़ दल भाजपा अपने प्रतिनिधियोंकी कम संख्याके बावजूद जिला पंचायत अध्यक्षोंकी कुल ७५ सीटोंमें ६७ पर एवं क्षेत्र पंचायत अध्यक्षोंकी कुल ८२६ सीटोंमें ६२६ सीटें जीतनेमें कामयाब रही। गौर करनेकी बात है कि पंचायत चुनावमें सर्वाधिक प्रतिनिधि समाजवादी पार्टीके चुनकर आये थे, लेकिन जिला पंचायत अध्यक्षके चुनावमें सपा अपने कमजोर चुनावी प्रबंधनके कारण मात्र पांच सीटोंपर सिमट गयी। इस बारके जिला पंचायत अध्यक्षके चुनावमें भाजपा अपने सहयोगी अपना दल (एस) सहित कुल ६७ सीटोंपर कब्जा जमानेमें कामयाब रही। जबकि सपाको पांच, रालोदको एक, जनसत्ता दलको एक और एक सीटपर निर्दलीय प्रत्याशीको सफलता मिली है। इसी तरह क्षेत्र पंचायत अध्यक्षोंके चुनावमें प्रदेशकी कुल ८२६ सीटोंमेंसे भाजपा ६२६ सीटें जीतनेमें कामयाब हुई। गौरतलब है कि २०१६ में सत्तामें रहते हुए भाजपाकी ही तरह समाजवादी पार्टीने भी पंचायत चुनावमें शानदार सफलता हासिल की थी। इस चुनावमें सपाने अकेले अपने दमपर जिला पंचायत अध्यक्षकी ६३ सीटोंपर कब्जा कर लिया था। उस समय भाजपाको मात्र पांच, बसपाको चार तथा कांग्रेस और रालोदको एक-एक सीटोंपर संतोष करना पड़ा।
पंचायत चुनावमें भ्रष्ट तरीके अपनाये जानेका अनुमान इस बातसे आसानीसे लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेशमें सपाके सबसे अधिक उम्मीदवार और समर्थक चुनाव जीत कर आये, इसके बावजूद भी पार्टी सिर्फ पांच जिला पंचायत अध्यक्ष चुनकर लानेमें सफल हो सकी। सपाकी तुलनामें भाजपाके कम उम्मीदवार जीते, परन्तु भाजपाने अपने मजबूत चुनावी प्रबंधनसे ७५ मेंसे जिला पंचायत अध्यक्षकी ६७ सीटें जीतकर प्रदेशमें अपना परचम लहरा दिया। इस चुनावमें सर्वाधिक नुकसान सपाको उठाना पड़ा। सपाका आरोप है कि उसके प्रतिनिधियों और उम्मीदवारोंको अंतिम समयमें भाजपाने लालच देकर अपने पालेमें कर लिया। अपने प्रतिनिधियोंको पाला बदलनेसे रोक पानेमें असमर्थ सपाने आनन-फाननमें काररवाई करते हुए अपने ११ जिला अध्यक्षोंको बर्खास्त कर दिया। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि शुरुआतमें बहुजन समाज पार्टी क्षेत्र एवं जिला पंचायत अध्यक्षका चुनाव लडऩा चाहती थी, लेकिन जब उसने देखा कि भाजपाने प्रारम्भमें ही अपने २१ जिला पंचायत अध्यक्षोंको निर्विरोध चुनवा लिया तो बसपाकी हिम्मत छूट गयी। उसने अपनेको चुनाव मैदानसे दूर कर लिया। इस चुनावमें सबसे अधिक दुर्गति कांग्रेसकी हुई। उत्तर प्रदेशमें कांग्रेस इतनी कमजोर हो चुकी है कि वह अपने गढ़ अमेठी और रायबरेलीमें भी अपने प्रत्याशियोंको नहीं जितवा सकी। देखा जाय तो इस चुनावमें सपा और बसपाको भी कम झटका नहीं लगा है। बसपाने तो चुनाव मैदानसे भाग खड़े होकर किसी तरह अपनी इज्जत बचा ली, परन्तु कांग्रेस अपना खातातक नहीं खोल सकी। कांग्रेसके चुनाव प्रबन्धकों खास कर उत्तर प्रदेशकी प्रभारी प्रियंका गांधीको इसपर गंभीर मंथन करना होगा, वरना २०२२ में उत्तर प्रदेशमें चुनाव जीतकर सरकार बनानेका प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लूका दावा खोखला साबित होगा।
पंचायत चुनावके नतीजे कांग्रेसको उत्तर प्रदेशमें अपनी जमीनी हकीकत समझनेके लिए काफी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेशके कुछ जिलोंमें प्रभाव रखनेवाले रालोदको पंचायत चुनावमें अपेक्षित सफलता तो हासिल नहीं हुई, लेकिन जयंत चौधरी अपने दादा पूर्व प्रधान मंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह और अपने पिता स्व. चौधरी अजित सिंहके गढ़ बागपत जिला पंचायत अध्यक्षकी सीट जीतकर अपने पूर्वजोंकी लाज बचानेमें अवश्य कामयाब रहे। वहीं प्रतापगढ़में राजा भैयाकी पार्टी जनसत्ता दलने जिला पंचायत अध्यक्षकी सीट जीतकर जिलेमें अपना दबदबा बरकरार रखा है। जौनपुरके पूर्व संासद धनंजय सिंह अपनी पत्नी श्रीकला सिंहको जौनपुर जिला पंचायत सीटसे विजयी बनानेमें सफल हुए। सोनभद्रमें अनुप्रिया पटेलका उम्मीदवार विजयी हुआ है।
आश्चर्य इस बातपर है कि सपाके गढ़ समझे जानेवाले मैनपुरी, कन्नौज और फिरोजाबादमें भाजपाने उसे शिकस्त दी है। भाजपाको पश्चिमी उत्तर प्रदेशके १४ जिलोंमें १३, ब्रज क्षेत्रके १२ जिलोंमें ११, कानपुर क्षेत्रके १४ जिलोंमें १३, अवध क्षेत्रके १३ जिलोंमें १३, काशी क्षेत्रके १२ जिलोंमें दस तथा गोरखपुर क्षेत्रके दस जिलोंमें सात सीटोंपर भाजपाके जिला पंचायत अध्यक्ष चुने गये। इस बारके चुनावमें रामपुर, प्रतापगढ़ उन्नाव और सुल्तानपुरमें त्रिकोणीय मुकाबला, एटा, सीतापुर और जौनपुरमें चतुष्कोणीय और प्रदेशके करीब ४५ जिलोंमें भाजपा और सपाके बीच सीधा मुकाबला देखनेको मिला। चुनाव नतीजोंको लेकर मीडियाकी रिपोर्ट और सत्तारूढ़ दलके नेताओंके बयान आश्चर्यचकित करनेवाले हैं। मीडियाके एक वर्ग और भाजपाकी तरफसे यह दावा किया जा रहा है कि पंचायत चुनावके नतीजे २०२२ के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावका सेमी फाइनल है। चुनाव नतीजोंको उत्तर प्रदेशके आगामी विधानसभा चुनावसे जोड़कर देखना शायद उचित नहीं होगा, क्योंकि क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत अध्यक्षका चुनाव सीधे जनता द्वारा न कराकर निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है।
यह चुनाव बिलकुल अलग पद्धतिसे कराये जाते हैं। इसलिए इसके जरिये जनमतका सही-सही आकलन कर पाना मुश्किल होता है। सत्तारूढ़ दलके नेताओंको पंचायत चुनावोंके संदर्भमें बयानबाजी करनेसे पूर्व तथ्योंसे ठीक प्रकारसे अवगत होना आवश्यक है। क्योंकि देखा गया है कि कई वरिष्ठ और अनुभवी नेता भी अपने बयानमें इस बातको प्रमुखतासे रख रहे हैं कि पंचायत चुनावके नतीजे राज्य सरकारके कार्योंपर मुहर है। जबकि वास्तवमें ऐसा नहीं है। इन चुनावोंका विधानसभा और लोकसभा चुनावपर कोई खास असर नहीं होने वाला। भाजपा इन नतीजोंसे विरोधियोंपर मनोवैज्ञानिक बढ़त अवश्य बना लेगी। जनमत जनतासे सीधे संवाद या जुड़ावसे तैयार होता है। इस चुनावमें जनता सीधे सहभागी न होकर उसके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियोंने हिस्सा लिया, इसलिए पंचायत चुनावका आगामी विधानसभा चुनावमें कोई असर होगा, ऐसा लगता नहीं है। इन चुनावोंमें पैसे और बाहुबलके बढ़ते प्रभावके कारण, अब क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत अध्यक्षोंके चुनावकी मौजूदा प्रणालीको बदलनेकी महती आवश्यकता है। पंचायत चुनावोंको आगेसे सीधे जनताके द्वारा कराये जानेपर विचार किया जाना चाहिए। इससे धनबल और बाहुबलके आधारपर मतदाताओंको खरीदकर चुनाव जीतनेकी चली आ रही परंपरापर रोक लगेगी और जनता स्वतंत्र और निष्पक्ष रूपसे अपने पसंदके उम्मीदवारका चुनाव कर सकेगी।
क्षेत्र और जिला पंचायत अध्यक्षका चुनाव सीधे जनता द्वारा कराकर पंचायत चुनावमें भ्रष्ट और अनैतिक तरीकोंके इस्तेमालको पूरी तरहसे तो रोका नहीं जा सकता, लेकिन इसपर काफी हदतक काबू पाया जा सकता है। लोकतंत्रको बचाने और चुनावकी पुरातन पद्धतिको बदलनेके लिए राजनीतिक दलोंको भी शुचिता लानी होगी। चूंकि हर वह पार्टी जो सत्तामें होती है, वह इस चुनावी कमजोरीका भरपूर फायदा उठाती है। इसलिए इस व्यवस्थाके खिलाफ खुलकर कोई बोलनेका साहस नहीं दिखाता। इस त्रुटिपूर्ण चुनाव प्रणालीको बदलना समयकी मांग है। इसके लिए दूसरोंसे अलग समझी जानेवाली पार्टी भाजपाको पहल करनेकी जरूरत है। पंचायत चुनावके मौजूदा विद्रूप रूपको हर हालतमें बदलना होगा। इस व्यवस्थाको बदलनेसे भविष्यमें देशका सामान्य आदमी भी क्षेत्र पंचायत प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष आसानीसे बन सकेगा। चुनाव पद्धतिमें बदलाव करके पंचायत चुनावमें बाहुबल-धनबल और सत्ताबलके प्रभावको काफी हदतक कम किया जा सकता है।