सम्पादकीय

सद्गुरुकी महिमा


बाबा हरदेव

यदि कहीं बहुत अंधकार है और एक इनसान आवाजें दे कि कोई रोशनी करो, अंधेरेमें बहुत ठोकरें लग रही हैं। उसकी आवाजें सुनकर कोई उसकी हथेलीपर दीया जलाकर रख देता है। अब चारों तरफ रोशनी हो जाती है, लेकिन रोशनी-रोशनी चिल्लानेवाला इनसान यदि अपनी आंखें बंद कर ले तो चारों ओर रोशनी होनेके बावजूद भी रास्तेमें पत्थर आनेपर उनसे ठोकरें ही खाता है। कहनेका भाव हमें साधुकी कृपासे जो ज्ञान रूपी रोशनी प्राप्त होती है, उससे लाभ लें। उस शिक्षाको हम अपने जीवनमें उतारें, अमलमें लायें, तब ही उससे सुख प्राप्त कर सकते हैं। जब साधुसे हमें यह ज्ञान प्राप्त होता है और हम अपने आपको इस संतके आगे अर्पण कर देते हैं, तब ही यह अमोलक वस्तु हमारे मनमें टिक सकती है, लेकिन यदि यह मन हील-हुज्जत ही करता रहे तो फिर यह ज्ञान इसमें नहीं ठहरता, क्योंकि हुज्जती मन हमेशा अभिमानी होता है। यदि यह मन निमाणा नहीं बनता, नम्र भावमें नहीं आता तो वहांपर न गुरु है और न गुरुका ज्ञान है। यदि गुरुके आदेशों-उपदेशोंको हम अपने जीवनमें नहीं उतारते तो हमें वास्तविक आनंद प्राप्त नहीं हो सकता। दास, दातारके चरणोंमें यही अरदास करता है कि दातार ऐसी मेहर करे, ऐसी कृपा करे कि आप संतजन महापुरुष ज्ञानके साथ कर्म जोड़कर  इस संसारका भला मांगते रहें, भला करते रहें। ऐसी कामना ज्ञानवान महापुरुष ही कर सकते हैं। इस ज्ञानकी प्राप्तिके लिए जहां गुरुकी कृपा आवश्यक है, वहां जिज्ञासुकी तीव्र जिज्ञासा भी जरूरी है। स्वामी रामकृष्ण परमहंसके अनुसार जिज्ञासा इतनी तीव्र होनी चाहिए यदि कोई इनसान डूब रहा हो, पानीमें उनके श्वास जा रहे हों, जिस तरहसे उसको उस वक्त पानीसे बाहर निकलनेकी इच्छा होती है, जिस तरहसे उसकी एकाग्रता होती है कि मैं इस पानीसे बाहर आ जाऊं और खुली सांस ले, सकूं मेरा मुख पानीसे बाहर आ जाय। उसकी तड़प जो उस वक्त होती है, उसी तरह इनसानकी तड़प इस प्रभु दातारके लिए होनी चाहिए। इस भवसागरसे पार उतरनेकी इच्छा होनी चाहिए। आत्माको परमात्माकी जो प्यास है, उस तरफ इनसान कोई ध्यान नहीं देता।