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16 साल अमेरिका में कंप्युटर इंजीनियर रहे अजित सिंह सियासत के लिए स्वदेश तो लौटे


  • 60 के दशक में दुनिया की सबसे बड़ी कंप्युटर कंपनी माने जाने वाली आईबीएम के अमेरिका मुख्यालय में जब शायद गिने-चुने भारतीय काम करते रहे होंगे तो अजित सिंह उसमें आला स्थिति में थे. अमेरिका में उन्होंने कंप्युटर इंजीनियर के तौर पर अपनी जगह बना ली थी. अगर 80 के दशक में अखबारों में प्रकाशित होने वाली खबरों की बात मानें तो वो भारत लौटने में बहुत इच्छुक नहीं थे. लेकिन पिता चरण सिंह की इच्छा पर स्वदेश लौटे और राजनीति में कूद गए.

    अजित सिंह ने लखनऊ विश्व विद्यालय से बी.एस-सी की थी. इसके बाद वो आईआईटी खड़गपुर में सलेक्ट हो गए. पढ़ाई में बहुत शार्प माने जाते थे. ये चीज उन्होंने पढ़ाई के दौरान लगातार साबित भी की. उस दौरान भारत में आईआईटी से निकलने बी.टेक ग्रेजुएट अमेरिका का रुख कर लेते थे. 60 के दशक में वो अमेरिका चले गए.

    हालांकि अमेरिका जाने का उनका उद्देश्य कंप्युटर साइंस में उच्च शिक्षा हासिल करना था. शिकागो के इलिनोइस इंस्टीट्यूट से उन्होंने पोस्ट ग्रेजुएट किया. 60 के दशक में ही आईबीएम में शामिल हो गए. अजित सिंह करीब 16-17 वर्षों तक अमेरिका में रहे. काम में तरक्की हो रही थी. अच्छा वेतन पा रहे थे. अलग तरह का जीवन था.

    तब चरण सिंह की इच्छा थी कि वो वापस लौट आएं

  • 80 के दशक के आखिर में जब चौधरी चरण सिंह ने पार्टी में अपना सियासी वारिस तलाशना शुरू किया तो उनकी इच्छा थी कि बेटे अजित वापस भारत आकर राजनीति में उनका हाथ बटाएं. चरण सिंह के अनुयायियों ने भी अजित से वापस लौटने की गुहार लगानी शुरू की. माना जाता है कि अजित का बहुत ज्यादा मन नहीं था लेकिन पिता की इच्छा के आगे उन्हें झुकना पड़ा.

    वो भारत लौटे और राजनीति में कूदे

    80 के दशक के आखिर में वो भारत आ गए. राजनीति में कूद गए. 1986 में जब उनके पिता चरण सिंह बीमार रहने लगे तो वो राज्यसभा के रास्ते संसद में पहुंचे. इसी दौरान लोकदल में दोफाड़ हो गई. उन्होंने लोकदल का अपना गुट बनाया, इसका नाम पड़ा लोकदल (ए) .
    कभी दल बदला तो दल को समाहित किया

वर्ष 1987 में बने लोकदल (ए) के वो अध्यक्ष बने. इसके बाद उनकी पार्टी जनता पार्टी में समाहित हुई और वो 1988 में उसके अध्यक्ष बने. लेकिन इस दौरान ही वो पार्टियां बदलने लगे थे. 1989 में वो जनता दल में आ गए. वहां पार्टी के महासचिव बने.

पश्चिम उप्र से ताकत मिली लेकिन सियासी जमीन कमजोर भी करते गए

अजित सिंह को अपने सारे राजनीतिक करियर में पिता की विरासत के कार्यक्षेत्र पश्चिम उत्तर प्रदेश के ताकत मिलती रही. जब ये इलाका उनसे नाराज होता गया तो वो सियासत में कमजोर भी पड़ते गए. उनकी सियासी ताकत लगातार कमजोर पड़ने लगी.उनके बारे में कहा जाता था कि वो कब किस पार्टी से गठजोड़ करेंगे और कब इसे तोड़ेंगे-कहना मुश्किल है. हालांकि ये सब उन्होंने अपनी सुविधा और हितों को देखते हुए ज्यादा किया.