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भारत के इतिहास में अंग्रेजी हुकूमत का कालखंड शोषण और लूट का पर्याय


नई दिल्‍ली, । भारत के इतिहास में अंग्रेजी हुकूमत का कालखंड शोषण और लूट का पर्याय है। अंग्रेजों ने करीब 200 साल के शासन में आर्थिक रूप से समृद्ध भारत को किस हद तक निचोड़ लिया, इसका बारीक चित्रण लोकसभा सांसद शशि थरूर की किताब “एन एरा ऑफ डार्कनेस” में मिलता है। “भारत में लूटपाट” नामक अध्याय में थरूर लिखते हैं कि 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में ब्रिटेन के आर्थिक इतिहासकार एंगल मेडिसन ने विश्व की अर्थव्यवस्था में भारत की 23 प्रतिशत हिस्सेदारी का उल्लेख किया है। यह हिस्सेदारी पूरे यूरोप के बराबर थी। मुगल शासक औरंगजेब के काल में वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी 27 प्रतिशत थी। 1700 ईसवीं में औरंगजेब के खजाने में केवल कर राजस्व से 10 करोड़ पाउंड थे। ब्रिटिश शासक जब भारत छोड़कर गए तो वैश्विक अर्थव्यवस्था में उसकी हिस्सेदारी करीब तीन प्रतिशत रह गई। भारत के आर्थिक शोषण से ब्रिटेन के विकास को तो वित्तीय मदद मिलती रही लेकिन भारत दिनोंदिन कंगाल होता गया।

भारतीय अर्थव्यवस्था को एक सुनियोजित साजिश के तहत किस प्रकार नष्ट किया गया, यह कपड़ा उद्योग से समझा जा सकता है। थरूर लिखते हैं कि 1750 के दशक में बंगाल से प्रतिवर्ष 1.6 करोड़ रुपए का कपड़ा निर्यात होता था। इसमें से 56 लाख रुपए का माल भारत में बसे यूरोपीय व्यापारियों द्वारा भेजा जाता था। इतना ही नहीं 1757 तक बंगाल से हर साल 6.5 करोड़ रुपए का सिल्क निर्यात होता था जो बाद में घटकर 50 लाख रुपए रह गया। किताब के अनुसार, 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में कपड़े के वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 25 प्रतिशत थी परंतु इसे नष्ट कर दिया गया। बुनकरों की हालत अंग्रेजी शासनकाल में बेहद दयनीय हो गई। मलमल उत्पादन का महत्वपूर्ण केंद्र रहे ढाका में बुनकरों की आबादी 1760 में लाखों में थी। 1820 में इनकी संख्या केवल 50 हजार बची। ब्रिटिश शासकों ने 1765 से 1815 तक भारत से प्रतिवर्ष लगभग 1,80,00,000 पाउंड निचोड़े। इसी को देखते हुए लंदन में फ्रांस के राजदूत कॉम द शाटेल ने लिखा, “यूरोप में कुछ ही ऐसे राजा होंगे जो ईस्ट इंडिया कंपनी के निवेशकों से ज्यादा अमीर हों।”