सम्पादकीय

अधिकारोंको लीलता परिवार तंत्र


लक्ष्मीकांत चावला     

सन् १९९१ से पूरे देशमें नगर निगमों, नगर पालिकाओं तथा पंचायतोंमें महिलाओंको ३३ प्रतिशत आरक्षणका लाभ मिला। जहां पहले महिलाएं दूसरे उम्मीदवारोंके लिए हाथ उठा-उठाकर नारे लगातीं, दिन-रात काम करती दिखाई देती थीं, इस आरक्षणके साथ महिलाएं स्वयं उम्मीदवार बनकर चुनाव क्षेत्रमें उतरीं। विशेष बात यह रही कि यदि एक वार्डमें पांच महिलाएं आमने-सामने हो जातीं तो पचासों महिलाएं उनके साथ प्रचारके लिए निकलतीं। उस समय यह विश्वास बना था कि अब हमारे देशकी महिलाएं अपने गांव, शहर, महानगरका दायित्व स्वयं संभालेंगी और शहर साफ-सुथरे होंगे, रिश्वत मुक्त नगर प्रशासन हो जायगा। एक महिला मांकी तरह सचमुच नगर माता या नगर बहन बनकर जनताकी सेवा करेगी। चुनाव भी हो गये, महिलाएं चुनी भी गयीं, लेकिन नहीं बदला तो कामकाजका तरीका और पुरुष राजनीतिका वर्चस्व। दरअसल महिला जन-प्रतिनिधियोंके स्थानपर उनके पति, पुत्र या परिवारोंके अन्य पुरुष सदस्य काम करते नजर आते। थानोंमें भी सरपंच साहब बनकर जानेवाले बहुत बादमें बताते थे कि उनकी पत्नी सरपंच है और शहरोंमें तो अति हो गयी। चुनाव जीत चुकी अधिकतर महिला प्रतिनिधि घरोंमें बंद रहीं और उनके पति ही पार्षद और नगर कौंसिलके सदस्य बनकर अपनी धाक जमाते और अगले चुनावके लिए स्वयंको उम्मीदवारके रूपमें जनताके बीचमें लाते। मंचोंपर उनके नामके साथ पार्षद और सरपंच साहब कहकर ही संबोधित किया जाता।

एक बेचारी पार्षद महिलाने न जाने किस बेबसीसे या मजबूरीमें यह कहा कि उसे वोट भी पतिने लेकर दिये हैं और लाखों रुपये भी उसीने खर्च किये हैं। यदि वह स्वयं काउंसलर कहलवाते हैं तो क्या हर्ज है। बड़ी कठिनाईसे पांच प्रतिशत महिलाएं ही गांवों-शहरोंमें ऐसी मिलीं, जो स्वयं जन-प्रतिनिधिका दायित्व संभालकर जनताकी सेवामें लगी हैं। कुछ महिला सरपंच अपने गांवोंकी छवि पूरी तरहसे बदल रही हैं। उत्तर प्रदेशमें महिला पार्षद पतियोंका कितना ज्यादा दखल प्रशासनमें हो गया, जिससे उत्तर प्रदेश सरकारको पार्षद पति कानून भी बनाना पड़ा, क्योंकि वहां निगमकी बैठकोंमें भी यह पार्षद पति ही कब्जा करके बैठते देखे गये। लगता है जो भी दोष है, वह उन महिलाओंका है जो चुनाव जीत गयीं, परन्तु फिर भी कठपुतली ही बनी रहीं। कौन इनकार करेगा कि बहुत-सी महिला पार्षदों और पंचों-सरपंचोंके परिजन ही उनके नामकी मोहर जेबमें लेकर चलते हैं और कई बार उनके हस्ताक्षर भी स्वयं करते हैं। फिर भी ऐसी निर्वाचित महिलाओंको निलंबित नहीं किया जाता, जबकि जो स्वयं काम नहीं करते, उनके निलंबनकी शक्ति सरकारके पास है।

अब पंजाबमें बहुत बड़ी संख्यामें महिलाएं नगर पंचायतों और नगर निगमोंके लिए चुनाव जीती हैं। वर्तमान कैप्टन सरकारने महिलाओंको पचास प्रतिशत आरक्षणका लाभ दिया है। आशंका है कि अब भी यह निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधि शायद ही कार्य क्षेत्रमें स्वयं आगे आकर दायित्व संभालेंगी। यह सही है कि आज चुनाव क्षेत्रमें उतरी महिला सुशिक्षित है। अपने कर्तव्यको पहचानती है, अधिकारोंसे भी अपरिचित नहीं, फिर भी न जाने क्यों पूरी तरह अपने अधिकारों और सामाजिक प्रतिष्ठाकी तरफ ध्यान नहीं देतीं। एक विचार है कि महिलाओंके लिए वार्ड आरक्षित करके सरकारने महिला कार्यकर्ताओंको कमजोर किया। यदि वास्तवमें ही राजनीतिके क्षेत्रमें और स्थानीय स्वशासनके लिए महिलाओंको प्रभावी भूमिका देनेका विचार हमारी संसद रखती तो नियम यह बनाया जाता कि हर राजनीतिक दल ३३ प्रतिशत टिकट चुनावोंमें महिलाओंको देगा, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।

दरअसल चुनावी राजनीतिमें सक्रिय नेता भी दूसरोंपर विश्वास बहुत कम करते हैं। इसीका यह दुष्परिणाम है कि स्थानीय स्वशासनमें चुनावोंमें भाग लेनेवाले दूसरी और तीसरी पंक्तिके नेताओंका अपनी पत्नी और परिवारके निकट संबंधियोंके अतिरिक्त और किसीपर विश्वास नहीं रहा। चुनावी समर भूमिका नेता जब वार्ड महिलाओंके लिए आरक्षित हो जानेके कारण स्वयं चुनाव नहीं लड़ पाता तो उसे केवल अपनी पत्नी ही चुनाव लड़वानेके लिए सबसे योग्य दिखाई देती है। इसीका परिणाम यह है कि पंजाबमें नगर निगम और नगर निगमोंके जो चुनाव होते रहे वहां ९० प्रतिशतसे ज्यादा वही महिलाएं चुनाव क्षेत्रमें नेतृत्व करती हुई दिखाई देती रहीं, जिनका एक ही परिचय है कि वह किसी वरिष्ठ अथवा सक्रिय पदाधिकारीकी पत्नी हैं। कहीं-कहीं नेताओंकी मां अथवा पुत्रवधूको स्थान मिला है। यह अपवाद केवल उन्हीं परिवारोंमें है जहां पत्नी किसी भी कारण चुनाव मैदानमें आगे नहीं आ सकी। वर्ष १९९१ से २०१२ तकके जितने भी चुनाव स्थानीय संस्थाओंके हुए वहां ९० प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं जो एक बार पार्षद बननेके बाद पुन: प्रत्याशी नहीं बनायी गयीं। अब भी पंजाबमें वही महिलाएं अधिकतर प्रत्याशी बनी हैं जो पतिके नामपर अथवा उसके स्थानपर टिकट ले रही हैं। अच्छा हो कि देशकी संसद महिला आरक्षण कानूनमें जो कमियां रह गयी हैं, उसपर विचार करे।