घोसी में कभी पुरूआ,कभी पछुआ बयार
मौसम की तरह बदल रहा है चुनाव का रंग, बुद्धिजीवी दंग
मतदाताओं से कहीं ज्यादा सक्रिय दिख रही है सोशल मीडिया, पैसा बोलता है…
(ऋषिकेश पांडेय)
मऊ। पांच सितंबर को घोसी विधानसभा के उपचुनाव में कभी पुरूआ तो कभी पछुआ हवा बह रही है। चुनावी फिजा मौसम की तरह रंग बदलती दिख रही है। जिसे देखकर बुद्धिजीवी दंग नज़र आ रहे हैं।इस चुनाव में देखा जाय तो जितनी सक्रियता मतदाताओं की नहीं देखने को मिल रही है। उससे कहीं ज्यादा सोशल मीडिया की भूमिका देखने को मिल रही है। सोशल मीडिया का आतंक इस कदर बरकरार है कि वे बिना कुछ सोचे समझे जहां चाहे वहां माइक लगा कर सवाल दाग दे रहे हैं कि “वोट केके दियाई”?
यहां सवाल यह उठता है कि स्वस्थ भारतीय लोकतंत्र में जब गुप्त मतदान की व्यवस्था दी गई है तो फिर सोशल मीडिया को किसने यह अधिकार दे दिया है कि वे मतदान की गोपनीयता को खुलेआम तार-तार करें। कहने को तो सोशल मीडिया और मीडिया पर सख्त नजर रखने के लिए निर्देश दिया गया है। लेकिन,वह सिर्फ-हवाई ही साबित हो रहा है। जिससे वातावरण विषाक्त होता जा रहा है। जिसका भयंकर दुष्परिणाम चुनाव नतीजे आने के बाद देखने को मिलने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। सोशल मीडिया पर भोले-भाले मतदाताओं को जिस तरह से कुरेदकर लाइक और सब्सक्राइबर बढ़ाने की होड़ देखने को मिल रही है।वह स्वस्थ भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक है।कहा जाता है कि सोशल मीडिया से जुड़े लोग बेरोजगारी के दौर से गुजर रहे हैं और मीडिया संस्थानों से बहरियाये गये वे लोग हैं,जो अपनी काबिलियत का बेजा इस्तेमाल कर भविष्य के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। ऐसे में मिले चंद रूपये भी उनको गला फाड़कर-फाड़कर सच को झूठ और झूठ को सच साबित करने के लिए विवश कर रहे हैं। बहरहाल, सोशल मीडिया के इस खेल से मतदाता भी भली-भांति अवगत हो चुका है कि आजकल हर जगह सिर्फ पैसा बोलता है। शायद,यही वजह है कि मतदाता भी सोशल मीडिया के सामने कुछ बोल रहे हैं और दिल में कुछ और ही धारण किये हुए हैं। जिससे चुनाव में धर्म की परिभाषा भी बदलती नजर आ रही है। बहरहाल,खास मतदाताओं को छोड़ दिया जाय तो आम मतदाता जैसे नि: शुल्क राशन पाकर निहाल हैं। वैसे ही वे जान चुके हैं कि चुनाव बाद सब जीतने वाले एक ही रास्ते पर चलते हैं।उनको जनता के सुख- दुख से लेना-देना नहीं बल्कि जीतने के बाद सिर्फ अपना ही उल्लू सीधा करना है। ऐसे में चुनाव के दरम्यान जो उनका ख्याल रखेगा,वे भी उसी के लिए मतदान करेंगे। जिससे चुनाव अब बेहद खर्चीला हो गया है और चुनाव लड़ना अब आम आदमी के बस का नहीं रह गया है। शायद, यही वजह है कि चुनाव लड़ने वाले कतिपय उम्मीद वार चुनाव आयोग के निर्देशानुपालन में समाचार पत्रों में अपने आपराधिक इतिहास का ब्यौरा तक नहीं छपवा पाये और ना ही समय से अपना खर्च विवरण ही जमा कर पाये। जिन्हें आयोग ने नोटिस भी भेजा है। कुल मिलाकर देखा जाय तो घोसी विधानसभा के उपचुनाव में वोट और नोट का खेल शुरू हो गया है।अब साफ हो गया है कि इस चुनाव में एनडीए और इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार बाद में जीतेंगे और हारेंगे। सबसे पहले वह उम्मीदवार जीत हासिल करेगा,जो मतदाताओं का विशेष ख्याल रखने का काम करेगा।