बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी शनिवार शाम कुछ देर के लिए द्वापर युग के गोकुल में तब्दील हो गई तो गंगा-यमुना बन गई। तुलसी घाट पर नटखट कन्हैया अपने दोस्तों के साथ कंदुक क्रीड़ा (गेंद खेलते हुए) करते नजर आए। अचानक गेंद यमुना बनी गंगा में समा गई। ठीक ४:४० बजे कन्हैया कदंब की डाल से गंगा में छलांग लगा दिए।
कन्हैया को देखने के लिए उमड़ा श्रद्धालुओं का हुजूम उन्हें लेकर चिंतित हो गया। इस बीच थोड़ी ही देर में कालिया नाग का घमंड चूर कर नंदलाल उसके फन पर सवार होकर बांसुरी बजाते नजर आए। खुशी से गदगद श्रद्धालुओं ने श्रीकृष्ण की आरती उतारी। घंटा-घड़यिाल और डमरू की मधुर ध्वनि के बीच प्रभु को सभी ने शीश नवाया। वृंदावन बिहारी लाल की जय, नटवर नागर की जय और हर-हर महादेव का गगनचुंबी उद्घोष हुआ। इसके साथ ही १० मिनट में नागनथैया लीला संपन्न हो गई।
अपने समय पर लीला : अपराह्न साढ़े तीन बजे ब्रजविलास के गायन के साथ लीला आरम्भ हुई। नारद मुनि, महाराज कंस के पास पहुंचते हैं। इसके साथ ही यमुना (गंगा) तट पर बलदाऊ, श्रीदामा और अन्य सखाओं संग कान्हा कन्दुक क्रीड़ा आरम्भ करते हैं। खेल के दौरान गेंद यमुना में चली गयी और नंदलला गेंद लेने के लिए यमुना में जाने की हठ करते हैं। मना करने के बावजूद ठाकुर जी नहीं माने। नदी किनारे कदम्ब के पेड़ पर चढ़े तो भक्तों के हृदय की धड़कनें बढ़ गयी। कान्हा ने पेड़ पर परिक्रमा करते हुए भक्तों को दर्शन दिए और यमुना (गंगा) में कूद पड़े। कुछ क्षण माहौल शांत मानो हर गतिविधि थम गयी। नदी में कालिय नाग का मर्दन कर उनके फन पर सवार होकर बांसुरी बजाते हुए बाहर निकले तो हर ओर जय-जयकार होने लगा। आरती की लौ और डमरुओं की डिम-डिम गूंज उठी। कालिय नाग के फन पर विराजमान बांके बिहारी ने भक्तों को दर्शन दिया।
ठाकुरजी को चढ़ायी माला : सबसे पहले संकट मोचन मंदिर के महंत प्रो. विश्वम्भर नाथ मिश्र ने ठाकुर जी को माला चढ़ायी। इसके पश्चात कुंवर अनंत नारायण सिंह की ओर से ठाकुर जी को माला चढ़ायी गयी। परिक्रमा पूरी करने के बाद तट से दुर्गा मंदिर महंत परिवार के सदस्यों ने प्रभु को नाग के फन से उठाकर कंधे पर बैठाया और सीढ़ियां चढ़ते हुए घाट के ऊपर स्थित राधा-माधव मंदिर के श्रृंगार घर ले गये। इसके साथ लीला सम्पन्न हुई।
कायम रही परम्पराएं : नागनथैया लीला में परम्परा अनुसार महाराज कुंवर अनंत नारायण सिंह तय समय पर लीला स्थल के सामने गंगा की धार पर व्यवस्थित बेड़े पर विराजे। इससे पहले उन्होंने संध्या आरती की। वहीं, लीला मंडली का कीर्तन गूंजता रहा। इसमें झांझ-मजीरे के साथ दोहों का गायन सस्वर होता रहा। लीला स्थल पर डमरुओं की डिम-डिम की गूंज से काशी ८४ घाट गूंज उठे।
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