ओशो
विचारकी वीणाके तार इतने खिंचे हुए हैं कि उनसे संगीत पैदा नहीं होता और मनुष्य विक्षिप्त हो गया है। यह विचारकी वीणाके तार थोड़े शिथिल करने अत्यंत जरूरी हो गये हैं, ताकि वह समस्थितिमें आ सकें और संगीत उत्पन्न हो सके। विचारका केंद्र मस्तिष्क है और भावका केंद्र हृदय है और संकल्पका केंद्र नाभि है। विचार, चिंतन, मनन मस्तिष्कसे होता है। भावना, अनुभव, प्रेम, घृणा और क्रोध हृदयसे होते हैं। विचारपर अत्यधिक तनाव और बल है। मस्तिष्क अत्यंत तीव्रतासे खिंचा हुआ है। विचारसे ठीक उलटी स्थिति हृदयकी है। हृदयके तार बहुत ढीले हैं। विचार और हृदयके दोनों तार यदि सम, मध्य, संतुलित हो जायं तो वह संगीत पैदा होगा जिस संगीतके मार्गसे नाभिके केंद्रतककी यात्रा की जा सकती है। इसके पहले कि हम ठीकसे हृदयके संबंधमें, भावके संबंधमें कुछ समझें, मनुष्य जाति एक बहुत लंबे अभिशापके नीचे जी रही है, उसे समझ लेना जरूरी है। उसी अभिशापने हृदयके तारोंको बिलकुल ढीला कर दिया है और वह अभिशाप यह है कि हमने हृदयके सारे गुणोंकी निंदा की है। हृदयकी जो भी क्षमताएं हैं, उन सबको हमने अभिशाप समझा है, वरदान नहीं समझा और यह भूल इतनी संघातक है और इस भूलके पीछे इतनी नासमझी और इतना अज्ञान है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। क्रोधकी हमने निंदा की है, अभिमान, घृणा, राग, हर चीजकी हमने निंदा की है। बिना यह समझे हुए कि हम जिन चीजोंकी प्रशंसा करते हैं, वे इन्हीं चीजोंके रूपांतरण हैं। हमने क्षमाकी प्रशंसा की है और क्रोधकी निंदा की है और बिना इस बातको समझे हुए कि क्षमा क्रोधकी शक्तिका ही परिवर्तित रूप है। हमने घृणाकी निंदा और प्रेमकी प्रशंसा की है और बिना यह समझे कि घृणामें जो ऊर्जा प्रकट होती है, वही रूपांतरित होकर प्रेममें प्रकट होती है। उन दोनोंके पीछे प्रकट होनेवाली शक्ति भिन्न-भिन्न नहीं है। हमने अभिमानकी निंदा और विनम्रताकी प्रशंसा की है बिना यह समझे हुए कि अभिमानमें जो ऊर्जा प्रकट होती है, वही विनम्रता बन जाती है। उन दोनों चीजोंमें बुनियादी विरोध नहीं है, वह एक ही चीजके परिवर्तित बिंदु हैं। जैसे वीणाके तार बहुत ढीले हैं या बहुत कसे हैं, उन्हें छूता है संगीतज्ञ तो उनसे बेसुरा संगीत पैदा होता है। वह जो बेसुरापन पैदा हो रहा है, यदि उसके विरोधमें आकर कोई तारोंको तोड़ डाले और वीणाको पटक दे और कहे कि इस वीणासे बहुत बेसुरा संगीत पैदा होता है, यह तो तोड़ देने जैसी है तो वीणा तो वह तोड़ सकता है, लेकिन संगीत भी उसी वीणासे पैदा हो सकता था, जिससे बेसुरे स्वर पैदा हो रहे थे। कहनेका तात्पर्य है कि वही वीणा संगीतका ऐसा राग पैदा कर सकती है, जिसे सुनकर आपके हृदयकी गहराइयों तक आनन्दकी अनुभूति छा जाती है।