पाठ्यपुस्तकों के पैसे खर्च हो रहे घर-परिवार की दूसरी जरूरतों पर
(आज शिक्षा प्रतिनिधि)
पटना। राज्य के सरकारी स्कूलों के 1ली से 8वीं कक्षा के 89 फीसदी बच्चों को उनके अभिभावक किताब खरीद कर नहीं दे रहे हैं। वह भी तब, जब उन्हें बच्चों की किताबें खरीदने के लिए सरकार पैसे दे रही है। अभिभावक बच्चों की पाठ्यपुस्तकों के पैसे घर-परिवार की दूसरी जरूरतों पर खर्च कर रहे हैं। इसका सीधा असर बच्चों की पढ़ाई पर पड़ रहा है।
1ली से 8वीं कक्षा के बच्चों को शिक्षा का अधिकार कानून के तहत पाठ्यपुस्तकें देने के प्रावधान हैं। बिहार की बात करें, तो राज्य में 1ली से 8वीं कक्षा की पढ़ाई वाले सरकारी स्कूलों की संख्या तकरीबन 72 हजार है। इनमें 1ली से 8वीं कक्षा में तकरीबन 1 करोड़ 68 लाख बच्चे हैं। वर्ष 2017-18 तक 1ली से 8वीं कक्षा के बच्चों के हाथों तक नि:शुल्क पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध कराने की व्यवस्था थी। लेकिन, जब शैक्षिक सत्र शुरू होने के महीनों बाद बच्चों के हाथों में पाठ्यपुस्तकें पहुंचनी शुरू हुईं, तो राज्य सरकार ने केंद्र को पाठ्यपुस्तकों के बदले नकद राशि ही बच्चों को देने का प्रस्ताव केंद्र को दिया, ताकि बच्चे समय से पाठ्यपुस्तकें खरीद सकें। यह प्रस्ताव केंद्र को रास आया।
उसके बाद से बच्चों को पाठ्यपुस्तकें खरीदने के लिए नकद राशि देने की व्यवस्था लागू हुई। इसके तहत पाठ्यपुस्तक की राशि सीधे बच्चे या उनके अभिभावक के खाते में डीबीटी के जरिये भेजी जाती है, ताकि शैक्षिक सत्र के प्रारंभ में ही बच्चे नयी कक्षा की किताब खरीद सकें। इसके तहत 1ली से 5वीं कक्षा के बच्चों को प्रति बच्चा 250 रुपये एवं 6ठी से 8वीं कक्षा के बच्चों को प्रति बच्चा 400 रुपये दिये जाते हैं।
बावजूद, इन पैसों से बच्चों के लिए उनके अभिभावक पाठ्यपुस्तकें नहीं खरीद रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि शैक्षिक सत्र 2018-19 में 87 फीसदी बच्चों के पास पाठ्यपुस्तकें नहीं थीं। हालांकि, शैक्षिक सत्र 2019-20 में 81 फीसदी बच्चे बिना किताब पाठ्यपुस्तक वाले थे। शैक्षिक सत्र 2020-21 में तो बिना पाठ्यपुस्तक वाले बच्चों की संख्या बढ़ कर 89 फीसदी पर पहुंच गयी। यानी, शैक्षिक सत्र 2018-19 में 13 फीसदी बच्चों के लिए ही उनके अभिभावकों ने पाठ्यपुस्तकें खरीदीं। शैक्षिक सत्र 2019-20में 19 फीसदी बच्चों के लिए उनके अभिभावकों ने पाठ्यपुस्तकें खरीदीं। इससे इतर 2020-21 में 11 फीसदी बच्चों के लिए ही उनके अभिभावकों ने पाठ्यपुस्तकें खरीदीं।
इसके मद्देनजर बच्चों को पैसे के बदले पाठ्यपुस्तकें देने की पुरानी व्यवस्था फिर से बहाल करने की आवश्यकता जतायी जा रही है। इसके लिए यह तर्क दिया जा रहा है कि सरकारी स्कूल में ज्यादातर गरीब परिवार के बच्चे हैं, लड़कियों की संख्या भी सरकारी स्कूलों में ज्यादा है। गरीबी के संदर्भ में जब खाने या दूसरे जरूरी चीजों की कमी हो, तो परिवारों के लिए पाठ्यपुस्तकों के लिए आये पैसों का उपयोग खाना या दवाई या किसी अन्य कार्य में करना सामान्य बात है।
विशेषज्ञों की मानें, तो किताबों की जरूरत उन बच्चों को ज्यादा है, जिनके माता-पिता खुद पढ़े-लिखे नहीं हैं और घर में कोई दूसरी पढऩे-लिखने की सामग्री उपलब्ध नहीं है। उन घरों में स्कूल की किताबें ही एकमात्र पढऩे का साधन है। लेकिन, अभिभावक जब पाठ्यपुस्तकों के लिए मिलने वाले पैसे से किताबें खरीद कर नहीं देंगे, तो बच्चे पढ़ेंगे?
बहरहाल, इस स्थिति पर शिक्षा विभाग गंभीर है। इसलिए भी कि कोरोनाकाल में स्कूलों के बंद रहने से पाठ्यपुस्तकें ही बच्चों की पढ़ाई का माध्यम है।