ओम बिरला: भारत विश्व का महानतम कार्यशील लोकतंत्र है। ऐसा न केवल इसके विशाल आकार, अपितु इसके बहुलतावादी स्वरूप और समय की कसौटी पर खरा उतरने के कारण है। लोकतांत्रिक परंपराएं और सिद्धांत भारतीय सभ्यता के अभिन्न अंग रहे हैं। हमारे समाज में समता, सहिष्णुता, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व और लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित जीवनशैली जैसे गुण सदियों से विद्यमान रहे हैं। लोकतंत्र की जड़ें हमारी राजनीतिक चेतना में गहराई तक समाई हुई हैं। इसलिए विभिन्न कालखंडों में यहां चाहे कोई भी शासन व्यवस्था रही हो, मगर आत्मा लोकतंत्र की ही रही। जब भारत आजाद हुआ तो दुनिया के कई देशों ने करीब उसी समय आजादी पाई, परंतु अपनी लोकतांत्रिक परंपराओं को संरक्षित एवं संवर्धित करने के कारण भारत को विशेष प्रतिष्ठा मिली। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब आजादी के नायकों और हमारे मनीषियों ने संविधान की रचना की तो उसमें स्वतंत्रता, समानता, बंधुता और न्याय के आधारभूत मूल्यों को सहज ही शामिल कर लिया गया।
संविधान निर्माण के दौरान संविधान निर्माताओं के समक्ष तीन मुख्य उद्देश्य थे। राष्ट्र की एकता और स्थिरता को सुरक्षित रखना, नागरिकों की निजी स्वतंत्रता और विधि के शासन को सुनिश्चित करना तथा ऐसी संस्थाओं के विकास के लिए जमीन तैयार करना, जो आर्थिक और सामाजिक समानता के दायरे को व्यापक बनाएं। संविधान निर्माताओं ने अपने अनुभव, ज्ञान, सोच और जनता से जुड़ाव के चलते न केवल इन लक्ष्यों की पूर्ति की, बल्कि हमें ऐसा संविधान प्रदान किया जो अपने समय का सबसे प्रगतिशील एवं विकासोन्मुखी संविधान है। यही संविधान समय-समय पर दस्तक देने वाली चुनौतियों से जूझने में राष्ट्र को सक्षम बनाता है। यही जनाकांक्षाओं की पूर्ति का हेतु बनता है। संविधान ही हमारा सबसे बड़ा मार्गदर्शक है। यह न सिर्फ विधि के शासन को सुनिश्चित करता है, बल्कि राजव्यवस्था के सभी अंगों की शक्ति का स्नेत भी है। वस्तुत: भारत के संसदीय लोकतंत्र की सफलता भारत के संविधान की सुदृढ़ संरचना और उसके द्वारा विहित संस्थागत ढांचे पर आधारित है।
पिछले 72 वर्षो में हमारा लोकतांत्रिक अनुभव सकारात्मक और गौरवान्वित करने वाला रहा है। इस दौरान देश ने न केवल लोकतांत्रिक संविधान का पालन किया, बल्कि उसमें नए प्राण फूंकने और लोकतांत्रिक चरित्र को सशक्त बनाने में अत्यधिक प्रगति की है। हमने ‘जन’ को अपने ‘जनतंत्र’ के केंद्र में रखा है। दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में स्थापित होने के साथ भारत ऐसे देश के रूप में उभरा, जो निरंतर पल्लवित होने वाली संसदीय प्रणाली के साथ जीवंत एवं बहुलतावादी संस्कृति का उत्कृष्ट प्रतीक है। हमने संविधान की प्रस्तावना के अनुरूप एक समावेशी और विकसित भारत बनाने के लिए न केवल अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को साकार करने पर ध्यान केंद्रित किया, बल्कि शासन प्रणाली में भी रूपांतरण कर रहे हैं। यह एक आदर्श परिवर्तन है, जिसमें लोग अब मूकदर्शक न होकर बदलाव के वाहक बन गए हैं।
अब तक हुए तमाम लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बाद एक राजनीतिक दल से दूसरे राजनीतिक दल को सत्ता का निर्बाध हस्तांतरण हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली की सफलता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। हमारा संविधान राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को दिशा अवश्य प्रदान करता है, परंतु उसके विकास के स्वरूप और उसकी गति को निर्धारित करना हमारा काम है। हमारी निष्ठा संवैधानिक मूल्यों और सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विकास के फायदों को समाज के निचले पायदान तक ले जाने के प्रति होनी चाहिए। इसके लिए हमें संविधानप्रदत्त अधिकारों के साथ-साथ अपने दायित्वों के महत्व को भी समझना होगा। संविधान में नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों का अद्भुत संतुलन है। आजादी के 75 वर्षो में अब वह समय आ गया है कि राष्ट्रहित में नागरिक कर्तव्यों को समान महत्व दिया जाए। यदि हम राष्ट्रीय उद्देश्यों और संवैधानिक मूल्यों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा एवं प्रतिबद्धता के साथ करेंगे तो हमारा देश विकास पथ पर तीव्र गति से अग्रसर होगा। साथ ही हमारा लोकतंत्र भी अधिक समृद्ध एवं परिपक्व बनेगा।
आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। विश्व की एक प्रमुख अर्थव्यवस्था के रूप में उभर रहे हैं। हमारे विकास की धारा भी एकध्रुवीय न होकर सर्वसमावेशी और समतावादी है। यह इसीलिए संभव हुआ, क्योंकि हमारा संविधान हमें ऐसी राह दिखाता है और सुनिश्चित करता है कि विकास यात्र में समाज का कोई तबका पीछे न रह जाए। हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली स्थानीय स्वशासन तथा पंचायती राज जैसी संस्थाओं के माध्यम से महिलाओं तथा समाज के कमजोर वर्गो की सामाजिक-आर्थिक प्रगति में भागीदारी पर बल देती है।