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Monsoon Session: संसद में सार्थक चर्चा, मानसून सत्र में हल्ला-हंगामा होने के आसार


संसद सत्र के पहले बुलाई जाने वाली सर्वदलीय बैठकों में भले ही पक्ष-विपक्ष के बीच सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलाने पर सहमति बनती हो, लेकिन आम तौर पर ऐसा होता नहीं। इस बार भी इस सहमति के विपरीत काम होता हुए दिखे तो आश्चर्य नहीं। संसद के मानसून सत्र में हल्ला-हंगामा होने के आसार इसलिए और अधिक हैं, क्योंकि कई विपक्षी दलों ने लोकसभा अध्यक्ष की ओर से बुलाई गई बैठक में शामिल होने की आवश्यकता ही नहीं समझी।

इसके अतिरिक्त इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि एक ओर जहां तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव कई विपक्षी दलों के साथ मिलकर सरकार को घेरने की तैयारी कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस समेत अन्य दल सेना में भर्ती की अग्निपथ योजना, महंगाई और किसानों की समस्याओं को उठाने पर जोर दे रहे हैं। इस सबके अलावा विपक्ष संसद परिसर में धरना-प्रदर्शन पर रोक के साथ असंसदीय करार दिए जा सकने वाले शब्दों की नई सूची पर भी रार ठानने को तैयार दिख रहा है।

यह तब है, जब न तो संसद परिसर में धरना-प्रदर्शन पर रोक का निर्णय नया है और न ही असंसदीय शब्दों की सूची पहली बार जारी की गई है। इसके बाद भी इन विषयों पर विपक्ष के तीखे तेवर यही बताते हैं कि हंगामा करने के लिए बहाने खोजे जा रहे हैं। यह सही है कि विपक्ष को संसद में किसी भी विषय को उठाने और उस पर अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन आखिर उन मुद्दों पर चर्चा करने का क्या मतलब, जिन पर पहले ही व्यापक बहस हो चुकी हो? जब अग्निपथ योजना के गुण-दोष पर अच्छी-खासी बहस हो चुकी है और उस पर अमल भी होने लगा है, तब फिर संसद में उस पर बहस करने का क्या मतलब?

क्या विपक्षी दल इस योजना पर ऐसा कुछ कहना चाहते हैं, जो वे अभी तक नहीं कह सके हैं? यदि नहीं तो फिर संसद के बाहर कही गई बात संसद की कार्यवाही का हिस्सा बन जाने से क्या हासिल होने वाला है? सूचना क्रांति ने सार्वजनिक विमर्श का परिदृश्य बदलकर रख दिया है, लेकिन संसद की कार्यवाही अभी भी पुराने ढर्रे पर चल रही है। एक नई समस्या यह है कि विपक्ष अपनी बात कहने के नाम पर हंगामा करना अधिक पसंद करता है और फिर यह शिकायत भी करता है कि उसे बोलने का अवसर नहीं दिया जा रहा है।

यह एक तथ्य है कि संसद में सार्थक चर्चा का अभाव बढ़ता चला जा रहा है। कई बार तो महत्वपूर्ण विधेयकों पर भी सतही चर्चा होती है या फिर जिन मुद्दों पर बहस की मांग की जाती है, उन पर भी वही बातें दोहरा दी जाती हैं, जो संसद के बाहर पहले भी कही जा चुकी होती हैं। आखिर ऐसे में संसद अपनी सार्थकता कैसे सिद्ध करेगी?