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MP: कमजोर आर्थिक स्थिति वाले किसानों के पुराने सवाल का जवाब मिले, फिर नई बातें


रायपुर, । भारत जोड़ो यात्रा के बहाने मध्य प्रदेश पहुंचे राहुल गांधी के साथ प्रदेश में पिछले करीब चार साल से भटक रही एक जन-जिज्ञासा का भी इंतजार पूरा होने की उम्मीद जगी है। यह कृषि आधारित जीवनशैली और अर्थव्यवस्था वाला प्रदेश है जो अब गेहूं उत्पादन में पंजाब को टक्कर दे रहा है। वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव से लगभग पांच महीने पहले राहुल गांधी मंदसौर आए थे। वहां एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उन्होंने नारा दिया था- कांग्रेस का कहना साफ, हर किसान का कर्जा माफ। उस वक्त कांग्रेस ने करीब 41 लाख किसानों का 56 हजार करोड़ रुपये कर्ज माफ करने का संकल्प जताया था। छोटी-छोटी जोत और कमजोर आर्थिक स्थिति वाले किसानों पर इस वादे का जादुई असर हुआ।

तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अच्छी छवि और प्रशंसनीय कार्य-प्रदर्शन के बावजूद विधानसभा चुनाव में भाजपा पिछड़ गई और कांग्रेस ने कमल नाथ के नेतृत्व में सरकार बना ली। उस सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में भी राहुल गांधी शामिल हुए थे। हर तरफ उत्साह का माहौल था। सर्वाधिक उत्साहित कर्जदार किसान थे जिन्हें कांग्रेस के शीर्षस्थ नेता के वादे पर भरोसा था कि उनके कर्ज माफ हो जाएंगे।

कमल नाथ सरकार ने कामकाज संभाल लिया, पर किसानों का इंतजार आगे बढ़ता रहा। धीरे-धीरे एक साल गुजर गया। इस अवधि में राज्य सरकार ने मुश्किल से सवा तीन लाख किसानों को छोटे-छोटे कर्जों की माफी के प्रमाणपत्र दिए। शेष लगभग 38 लाख किसानों के कर्ज माफ नहीं हुए। स्वाभाविक रूप से 15 माह के कार्यकाल में कमल नाथ सरकार ने तमाम छोटे-बड़े फैसले किए, पर वादे के मुताबिक सभी किसानों की कर्जमाफी नहीं हुई। सरकार के शपथ ग्रहण के बाद राहुल गांधी ने भी इधर रुख नहीं किया।

सरकार रहते और सरकार जाने के बाद कमल नाथ या किसी अन्य बड़े कांग्रेस नेता ने इस बारे में कोई स्पष्ट बात नहीं की। अधिकतर किसान खुद को ठगा महसूस कर रहे थे, क्योंकि माफी के इंतजार में कर्ज का ब्याज भी बढ़ गया। यह सवाल तब से प्रदेश के परिवेश में भटक रहा है कि कमल नाथ सरकार ने किसानों के साथ ऐसा क्यों किया? उन्होंने अपने शीर्षस्थ नेता राहुल गांधी के वादे का सम्मान क्यों नहीं किया? चूंकि कर्ज माफी का वादा स्वयं राहुल गांधी ने किया था, इसलिए चार साल बाद उनके मध्य प्रदेश आने से किसानों के मन में उम्मीद जगी है कि शायद वे खुद स्थिति स्पष्ट करें।

मध्य प्रदेश में अगले वर्ष अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव संभावित है। उसके छह महीने के भीतर लोकसभा चुनाव होंगे। जाहिर है, नया साल शुरू होते ही यहां राजनीतिक दलों की गतिविधियां बढ़ जाएंगी। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव कई दृष्टियों से कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण है। किसी अन्य प्रदेश के मुकाबले मध्य प्रदेश की धरती पर कांग्रेस का आत्मविश्वास इसलिए अपेक्षाकृत उच्च रहता है, क्योंकि वर्ष 2018 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सत्ता के द्वार का ताला खोल चुकी है। इसके अलावा, यहां पार्टी की चुनाव कमान संभालने के लिए राष्ट्रीय कद के दो नेता दिग्विजय सिंह और कमल नाथ मौजूद हैं।

प्रदेश की चुनावी राजनीति में द्विदलीय परिदृश्य भी कांग्रेस को अनुकूलता प्रदान करता है, क्योंकि मुकाबले में तीसरे कोण के अभाव में कांग्रेस को सकारात्मक के साथ-साथ नकारात्मक समर्थन भी मिलता है। इसके बावजूद कांग्रेस के लिए वर्ष 2018 दोहराना कतई आसान नहीं है। किसानों की नाराजगी अपनी जगह है जिन्हें मनाना बेहद मुश्किल है। कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती जनजातीय वोट बैंक को अपने पाले में सुरक्षित रखने की है।

पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की विजय में इसी वोट बैंक की भूमिका मानी जाती है। भाजपा ने जनजातियों को लुभाने के लिए केंद्र से लेकर प्रदेश तक हरसंभव उपक्रम किया है। राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे शीर्ष सांविधानिक पदों पर इसी वर्ग के दिग्गज नेताओं की प्रतिष्ठा संयोग हो सकती है यद्यपि जनजातियों के दिल-दिमाग में केंद्र सरकार के इन फैसलों से उपजे प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। बहरहाल, इससे हटकर भी केंद्र और राज्य सरकार ने जनजातियों को तात्कालिक और दूरगामी लाभ पहुंचाने के लिए तमाम कदम उठाए हैं।

भाजपा स्वाभाविक रूप से इसके बदले चुनावी समर्थन के रूप में रिटर्न गिफ्ट की उम्मीद पाले बैठी है। कांग्रेस भी चौकन्नी है। उसके नेता खुद को जनजातियों का असली हमदर्द साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। स्पष्ट है कि करीब सालभर बाद विधानसभा चुनाव कहने को पूरे प्रदेश में लड़ा जाएगा, यद्यपि वास्तविक अखाड़ा जनजातियों के बाहुल्य वाले अंचलों में ही खुलेगा।