नई दिल्ली। आठ दिसंबर को गुजरात की 182 और हिमाचल प्रदेश की 68 विधानसभा सीटों के चुनाव को चाहे अनचाहे आगामी लोकसभा चुनाव से भी जोड़ा जाएगा। ऐसे में उत्तर प्रदेश की महज तीन सीटों पर हो रहे उपचुनाव के नतीजे भी सर्वाधिक 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश का मन-मिजाज समझाने के लिए पर्याप्त होंगे। मैनपुरी लोकसभा सीट से सीधे-सीधे समाजवादी पार्टी के अस्तित्व का प्रश्न जुड़ा है तो मुजफ्फरनगर की खतौली विधानसभा सीट यह बता देगी 2024 के लिए भूपेंद्र सिंह चौधरी के रूप में भाजपा के रणनीतिकारों द्वारा चला गया ‘जाट कार्ड’ असरकारी है या खास तौर पर जाटबेल्ट के लिए की गई सपा-रालोद की दोस्ती।
तय कर सकते हैं मुस्लिम राजनीति की दशा-दिशा
वहीं, रामपुर का परिणाम मुस्लिम राजनीति की दशा-दिशा तय कर सकता है। मैनपुरी लोकसभा सीट और रामपुर व खतौली विधानसभा सीट को सिर्फ ‘हांडी के तीन चावल’ नहीं मान सकते, बल्कि यह परिणाम वहां पक रही ‘सियासी खिचड़ी’ की सुगंध भांपने के लिए पर्याप्त होंगे। सबसे पहले बात करते हैं अभी सबसे कम चर्चा वाली मुजफ्फरनगर की खतौली विधानसभा सीट की, जो भाजपा और सपा के रणनीतिकारों की रणनीति का एक्सरे कर सकती है।
खतौली में फंसी भूपेंद्र चौधरी और जयंत की साख
खतौली में उसी रणनीति की पहली परीक्षा है। सपा-रालोद गठबंधन ने गुर्जर समुदाय के मदन सिंह कंसाना पर दांव लगाकर गुर्जर-जाट-मुस्लिम गठजोड़ की रणनीति बनाई है तो भाजपा ने पिछड़ा वर्ग से राजकुमारी सैनी को प्रत्याशी बनाया है। अब विरोधी के गठजोड़ से जाट वोट को अलग करना भूपेंद्र सिंह चौधरी के लिए चुनौती है। ऐसी ही परीक्षा जाटों पर जयंत के प्रभाव और सपा-रालोद गठबंधन के भविष्य की भी है।
मैनपुरी-रामपुर में अखिलेश-आजम की नाक
वहीं, मैनपुरी की पांच में से दो विधानसभा सीटों पर भाजपा को 2022 में भले ही विजय मिली हो, लेकिन सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के निधन से रिक्त हुई मैनपुरी लोकसभा सीट पर विजय पताका फहराना इतना आसान नहीं है। वह भी तब, जबकि अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव सुलह कर फिर से एक मंच पर आ गए हैं। अब भाजपा की नजर वोटों के गणित पर होगी, क्योंकि उसने 2019 के लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक मार्जिन दिलाने वाली जसवंतनगर विधानसभा के ही निवासी रघुराज शाक्य को सपा प्रत्याशी डिंपल यादव के सामने उतारा है। वहां यादव के बाद सबसे अधिक शाक्य वोट ही है। यदि यहां भाजपा अपनी रणनीति में सफल हो गई तो फिर सपा के भविष्य पर तमाम प्रश्न लगना लाजिमी है।
आसिम रजा को प्रत्याशी बनाने का विरोध
सपा के लिए ऐसी ही चिंता रामपुर विधानसभा सीट ने भी बढ़ा दी है। वहां आजम खां ने अपने उत्तराधिकारी के तौर पर आसिम रजा को प्रत्याशी बनाया है, जिनका विरोध पार्टी में ही शुरू हो गया। आजम के मीडिया प्रभारी फसाहत अली खां सहित सपा के अन्य पदाधिकारी सोमवार को भाजपा में शामिल हो गए। उल्लेखनीय है कि मुस्लिम बहुल आजमगढ़ लोकसभा सीट को भाजपा हाल ही में हुए उपचुनाव में जीत चुकी है। अब यदि विधानसभा सीट भी जीती तो न सिर्फ आजम खां की राजनीति का ढलान यहां नजर आएगा, बल्कि सपा से मुस्लिमों के मोहभंग का यह स्पष्ट इशारा होगा।