डा. अश्विनी महाजन
वैक्सीनके स्टॉककी अमेरिकाको फिलहाल कोई जरूरत नहीं है और न ही कच्चे मालकी अमेरिकामें कोई कमी है, जिससे उसे भारतको देनेमें उसे कोई नुकसान होगा। ऐसेमें अमेरिकाके इस फैसलेसे न केवल अमेरिकाकी असंवेदनशीलता उजागर होती है, बल्कि हमें आत्मनिर्भर होनेकी प्रेरणा भी मिलती है। वह देश जिन्होंने दुनियाको एक गांव है और आपसी व्यापार और सहकार ही जनताके कल्याणके लिए जरूरी होनेका दंभ भरते हुए हमें भूमंडलीकरणकी ओर धकेला, वही देश बिना वजह हमारी आवश्यकताकी चीजोंको बेवजह रोकनेकी कोशिश कर रहे हैं। चीनसे आये वायरसने पिछले एक सालसे भी ज्यादा समयसे पूरी दुनियाको झकझोर कर रख दिया है। एक ओर स्वास्थ्य संकट और उपकरणोंका अभाव, संक्रमणके डरसे मानसिक तनाव और मौतका तांडव तो दूसरी ओर अर्थव्यवस्थामें भारी गिरावट तथा बेरोजगारीके कारण अमीर-गरीब और मध्यम वर्गके सामान्य नागरिकोंपर कहीं थोड़ा तो कहीं ज्यादा असर हुआ है।
जहांतक बीमारीके असरकी बात है, वहां भी सभी वर्ग प्रभावित हुए हैं। लेकिन दूसरी ओर दुनियाकी बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हैं। चाहे वह दवा कम्पनियां, कृषि, ई-कॉमर्स, सोशल मीडिया हों या बड़ी टेक-कंपनियां, सभीके लाभ और व्यवसायमें लगातार पहलेसे ज्यादा वृद्धि हुई है। समझना होगा कि दुनियाके मु_ीभर अरबपतियोंके पास ही उपरोक्त इन सभी कंपनियोंका स्वामित्व है। पिछले ३० वर्षोंका यदि इतिहास देखा जाय तो भूमंडलीकरणके इस युगमें सबसे ज्यादा लाभ यदि किसीको हुआ है तो भी इन्हीं बहुराष्ट्रीय कंपनियोंको इसका लाभ हुआ है। इन कंपनियोंके व्यवसाय और परिसंपत्तियां कई गुना बढ़ गयी हैं। अधिकांश बौद्धिक संपदा अधिकार हो अथवा अन्य परिसंपत्तियां, इन कंपनियोंके हाथोंमें केंद्रित होती जा रही हैं। असमानताकी बात करें तो दुनियाभरमें आय और संपत्तिकी असमानताएं भी बढ़ी हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियोंकी बात करें तो अधिकांश बड़ी कंपनियां अमेरिका, यूरोप और जापानमें हैं और अब चीनमें भी इन कंपनियोंका प्रादुर्भाव हुआ है। भूमंडलीकरणके लाभोंका लालच दिखाकर विकासशील देशोंको मुक्त व्यापार और विदेशी पूंजीके भंवरमें फंसाया गया। कहा गया कि मुक्त व्यापारसे प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, जिससे हमारे उद्योग-धंधे और खेती पनपेगी। लेकिन इसका असर एकदम उल्टा हुआ। चीनके डब्ल्यूटीओमें प्रवेशके बाद उसने नियमोंको धत्ता दिखाते हुए गलत तरीकेसे दुनियाभरके देशोंमें अपना माल डंप करना शुरू कर दिया। नतीजतन अमेरिका, यूरोप, भारत समेत अनेक देशोंके घरेलू उद्योग दम तोडऩे लगे और उनका चीनके साथ व्यापार घाटा लगातार बढऩे लगा। भारतका चीनके साथ व्यापार घाटा २०००-०१ में ०.२ अरब डालरसे बढ़ता हुआ २०१७-१८ तक ६३ अरब डालर यानी ३१५ गुना बढ़ गया। साथ ही भारत हर जरूरी या गैर-जरूरी वस्तुओंके लिए चीनपर निर्भर हो गया।
इलेक्ट्रानिक्स, टेलीकॉम, एपीआई समेत तमाम ऑर्गेनिक और इनऑर्गेनिक कैमिकल्स, मशीनरी, स्टील, खिलौने, साइकिल समेत सभी चीजें चीनसे आने लगी थीं। नरेंद्र मोदी द्वारा २०१४ में सत्ता सूत्र संभालनेके बाद मेक इन इंडियाका नारा आया। कुछ प्रयास भी हुए, लेकिन चीनसे आयात बदस्तूर जारी रहे। यह सही है कि कई चीनी और अन्य विदेशी कंपनियोंने मेक इन इंडियाके तहत भारतमें उत्पादन केंद्र शुरू कर दिये, जिसके कारण व्यापार घाटा थोड़ा कम जरूर हुआ। लेकिन मार्च २०२० में महामारीके बाद देशको चीनपर अत्यधिक निर्भरताकी गलतीका अहसास पूरी तरहसे हो गया। यह भी सही है कि उससे भी चार-पांच वर्ष पहलेसे ही चीनकी विस्तारवादी नीति और सीमाओंके अतिक्रमणके कारण देशकी जनताने चीनी वस्तुओंका बहिष्कार शुरू कर दिया था। सरकारी प्रयासों और जनताके चीनके प्रति आक्रोशके बावजूद चीनसे व्यापार घाटा २०१९-२० तक मात्र ४८ अरब डालरतक ही घट सका। फिर मार्च २०२० से आये कोरोनाने तो नीति-निर्माताओंकी आंखें खोल दी। पीपीई किट्स, मास्क, टेस्टिंग किट्स, वेंटिलेटर और अन्य जरूरी मेडिकल उपकरणोंकी कमीने तो जैसे देशको झकझोर कर रख दिया था। ऐसेमें पूरे देशकी एक आवाज थी कि देशको आत्मनिर्भर बनानेकी जरूरत है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदीने आह्वान किया कि हमारा लक्ष्य आत्मनिर्भरका है और उसके लिए देशमें सभीको जुटना होगा। बड़े उद्योग, छोटे उद्योग या सामान्य-जन सभीको आह्वान किया गया। उत्तर प्रदेश सरकारने एक जिला-एक उत्पादका नारा दिया तो हरियाणाके जन-संघटनोंने आत्मनिर्भर हरियाणाका। गांवोंकी आत्मनिर्भरताकी बात होने लगी है। गांवोंको आत्मनिर्भर बनानेके लिए वहां सामान्य खेती-बाड़ीके अलावा मुर्गीपालन, पशुपालन, डेयरी, मशरूम उत्पादन, बांस उत्पादन, मछली पालन, बागवानी, खाद्य प्रसंस्करण, ग्रामीण उद्योग, हस्तकला-हथकरघा समेत सभी प्रकारके उपायों द्वारा गांवको आत्मनिर्भर बनानेकी योजनाओंपर विचार होने लगा है।
उसका परिणाम यह निकला कि आज हम पीपीई किट्स, मास्क, वेंटिलेटर, चिकित्सा उपकरण ही नहीं, कई अन्य आवश्यक सामग्रीका देशमें ही उत्पादन करने लगे हैं। यानी हमने दुनियाको दिखा दिया कि आत्मनिर्भरताकी नीतिके जरिये न केवल हम अपनी आवश्यकताओंकी पूर्ति कर सकते हैं, बल्कि दुनियाके लिए भी राहतका सामान पहुंचा सकते हैं। आज भारत दुनियाको पीपीई किट्स, टेस्टिंग किट्स, वेंटिलेटर, दवाइयां ही नहीं वैक्सीन भी पहुंचा रहा है। दुनियाभरमें भारतकी भूरि-भूरि प्रशंसा भी हो रही है। आज वक्त है कि हम विचार करें कि क्या हुआ है कि चीनी सामानकी डंपिंगके कारण हमारे औद्योगिक विकासपर विराम लग गया। गलती कहां हुई। क्यों जब भारतके उद्योग चीनी सामानोंके आक्रमणके कारण दम तोड़ रहे तो उस समयकी सरकार आयात शुल्क और अधिक घटाकर उस प्रक्रियाको और तेज करनेका काम कर रही थी। क्यों हमारे अर्थशास्त्री उपभोक्ताको सस्ता सामान मिलनेके नामपर आंखें मूंदकर अपने उद्योगोंके नष्ट होनेका तमाशा देख रहे थे। लेकिन आज इस महामारीने हमारी आंखें खोल दी हैं। देशकी अर्थव्यवस्था, रोजगार और अस्मिता बचानेका शायद आत्मनिर्भरता यानी स्वदेशी ही एक सही रास्ता है।