नई दिल्ली । दो दशक पहले भारत की संसद पर हुए हमले ने पूरे देश ही नहीं बल्कि दुनिया को झकझोड़ कर रख दिया था। पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन जैश ए मोहम्मद के आतंकियों द्वारा किए गए इस हमले सरकार और सुरक्षा एजेंसियों को इस बात पर सोचने के लिए मजबूर किया कि आखिर इनके लिए कौन सी पुख्ता रणनीति अपनाई जाए। दो दशक बाद भी पाकिस्तान में इस हमले का खाका खींचने वाले आतंकियों के मुखिया आजाद घूम रहे हैं।
13 दिसंबर 2001 को जब सभी लोग अपने रोजमर्रा की दिनचर्या में मशगूल थे, तभी एक खबर ने सभी का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया था। ये खबर संसद पर हुए हमले से जुड़ी थी। इसके बाद सभी की नजरें टीवी सेट पर आने वाली पलपल की खबर पर ही जमी रही थीं। पहली बार देश की संसद पर आतंकियों ने हमला किया था। इनसे निपटने संसद के सुरक्षाकर्मियों ने अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी थी।
45 मिनट तक आतंकियों के साथ सुरक्षाकर्मियों की मुठभेड़ जारी रही और अंत में सभी आतंकियों को मार गिराया गया था। इस हमले को जैश ए मोहम्मद के पांच आतंकियों ने अंजाम दिया था। हमले के लिए संसद को यूं ही नहीं चुना गया था, बल्कि इसके पीछे आतंकी ये जताना चाहते थे कि वो कहीं भी कुछ भी करने की गलती कर सकते हैं। उन्हें ये नहीं पता था कि इस हमले में उनका क्या हाल होगा।
संसद पर हमला करने आए इन आतंकियों का मकसद संसद के मुख्य भवन में प्रवेश कर वहां मौजूद सांसदों को निशाना बनाना था, लेकिन इसमें वो कामयाब नहीं हो सके थे। सभी आतंकियों को सुरक्षाबलों ने संसद के बाहर ही ढेर कर दिया था। इस हमले में दिल्ली पुलिस के पांच जवान, सीआरपीएफ की एक महिला कांस्टेबल और संसद के दो गार्ड भी शहीद हो गए थे। इसके अलावा कुल 16 जवान भी घायल हुए थे।
जिस दिन इस हमले को अंजाम दिया गया उस वक्त संसद सत्र चल रहा था और अधिकतर सांसद सदन में मौजूद थे। उस दिन संसद में ताबूत घोटाला को लेकर हंगामा चल रहा था। इसकी वजह से कुछ देर के लिए संसद के दोनों ही सदनों को स्थगित करना पड़ा था। पीएम अटल बिहारी वाजपेयी और और लोकसभा में विपक्ष की नेता सोनिया गांधी भी हमले से पहले अपने आवास के लिए निकल चुके थे। हालांकि, तत्कालीन गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी संसद भवन में ही थे।