स्वामी रामस्वरूप
चारों वेदोंमें और यहां वेदोंके आधारपर श्रीकृष्ण महाराजने प्रकृतिको अव्यक्त कहा है। अव्यक्तका अर्थ है जिसका स्वरूप व्यक्त नहीं किया जा सकता, जो आंखोंसे देखा नहीं जा सकता इत्यादि। जिस प्रकार परमात्मा और जीवात्मा अति सूक्ष्म है और यह दोनों तत्व भी अव्यक्त हैं उसी प्रकार जड़ प्रकृति भी अति सूक्ष्म अदर्शनीय तत्व है जो आंख आदि किसी प्रकारसे भी दिखाई नहीं देती। इसी प्रकार चारों वेदोंके प्रकांड दार्शनिक योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज वेद विद्याके आधारपर ही अति सूक्ष्म रूपसे ‘अव्यक्तात्’ पद उपयोग करके इस अव्यक्तात् पदका अर्थ अव्यक्त कर रहे हैं और जैसा कि त्रग्वेद मंत्रमें कहा वैसा ही श्रीकृष्ण महाराज भी कह रहे हैं कि अव्यक्त प्रकृतिसे ही सृष्टि रचनाके प्रारंभमें यह चेतन एवं जड़ दोनों जगत प्रकट होते हैं। चारों वेदोंमें और यहां वेदोंके आधारपर श्रीकृष्ण महाराजने प्रकृतिको अव्यक्त कहा है। अव्यक्तका अर्थ है जिसका स्वरूप व्यक्त नहीं किया जा सकता, जो आंखोंसे देखा नहीं जा सकता इत्यादि। जिस प्रकार परमात्मा और जीवात्मा अति सूक्ष्म है और यह दोनों तत्व भी अव्यक्त हैं उसी प्रकार जड़ प्रकृति भी अति सूक्ष्म अदर्शनीय तत्व है जो आंख आदि किसी प्रकारसे भी दिखाई नहीं देती। इसी अव्यक्त प्रकृतिका रूप सलिल इसलिए कहा है कि यह जो प्रकृतिसे व्यक्त सूर्य, चांद, समस्त संसार और शरीर आदि जड़ पदार्थ हैं यह प्रलयमें पुन: प्रकृतिमें लीन हो जाते हैं अर्थात प्रकृतिका अति सूक्ष्म अव्यक्त रूप बन जाते हैं। इसे समझनेके लिए ऐसा कह सकते हैं कि वट वृक्ष एक बहुत बड़ा, चौड़ा छायादार घना वृक्ष है। परंतु उसकी उत्पत्ति एक छोटेसे बीजसे ही है और जब वह वट वृक्ष एक समय वृद्ध एवं जर्जर अवस्था पाकर नष्ट हो जाता है तो उससे पहले अपने इतने बड़े रूपको कितने ही बीजोंमें उत्पन्न कर चुका होता है। अर्थात जिस बीजसे वट वृक्ष उत्पन्न हुआ था उसका विशाल रूप उस छोटेसे बीजमें पुन: समा जाता है। यही स्थिति अव्यक्त प्रकृतिकी है जो बीजसे भी अति सूक्ष्म और अर्दशनीय है। उसमेंसे ही वट वृक्षकी तरह यह संसार उत्पन्न होता है और प्रलयमें पुन: उसीमें समा जाता है। अत: हम सब भारतवासियोंको गीता श्लोकोंके वेद विरुद्ध अर्थ समाप्त करनेके लिए वेदोंका अध्ययन करना परम आवश्यक है। प्रकृतिसे जब सारा संसार और संसारके पदार्थ बन जाते हैं तो इसी विषयको योगेश्वर श्रीकृष्ण यहां कह रहे हैं कि इस अव्यक्त प्रकृतिसे ब्रह्मïदिनमें ही सब पदार्थ व्यक्त होते हैं और ब्रह्मïरात्रिमें सब व्यक्त पदार्थ पुन: वापस प्रकृतिमें लय हो जाते हैं। इसीको प्रलय कहते हैं। इसी ब्रह्मïदिन और ब्रह्मïरात्रिका वर्णन श्लोक ८/१७ में विस्तारसे बताया गया है।