सम्पादकीय

आत्मज्ञानकी प्राप्ति


बाबा हरदेव

आत्मज्ञानकी प्राप्ति गुरुकी कृपासे सहजमें हो सकती है, लेकिन इसकी संभाल बहुत कठिन है। जैसे हम कहींसे कोई पौधा ले आते हैं और अपने घरके आंगनमें लगा देते हैं, लेकिन केवल उसको घरके आंगनमें लगा देनेसे ही हमें लाभ नहीं मिल जाता। हम उसकी संभाल करते हैं। उसको पानी-खाद भी डालते हैं ताकि वे पौधे बड़े हों, फूल, फल और अच्छी छाया दें। संभाल करते हैं तो सारे लाभ मिल जाते हैं। इसी तरहसे यह ज्ञानका बीज भी मनमें डाला गया, इसको भी प्रफुल्लित करनेके लिए सेवा, सिमरन, सत्संगकी जरूरत होती है। जिस तरहसे दीपककी एक लौ जलाते हैं। हवामें उस दीपकको दोनों हथेलियोंसे ढक लेते हैं ताकि चारों तरफसे जो हवा चल रही है, वह उस लौको बुझा न दे। इसी प्रकार ज्ञानके दीपकको जब मायाकी हवा बुझानेकी कोशिश करती है तो ज्ञानकी संभाल करनेके लिए गुरुके ज्ञानकी आवश्यकता होती है। हमें धन मिलता है तो धनकी संभाल भी आवश्यक होती है। देखनेवाला कहता है कि उसके पास तो इतनी जायदाद है, धन है और इसके कारण उसके सारे परिवारकी संभाल हो गयी है। लेकिन उस धनको पहले परिवारवालोंने ही संभाला हुआ था, तभी तो वह उसकी संभाल कर रहा है। उसको फेंका नहीं और हाथसे जाने नहीं दिया तो उसकी संभाल हो रही है। यदि कोई नदीमें डूब रहा इनसान नदीमें बह रहे लकड़ीके शहतीरको थाम लेता है तो देखनेवाला कहता है कि देखो जी, इस शहतीरने इसे संभाल लिया है, वरना यह डूब जाता। लेकिन शहतीरने तो उसे तभी संभाला है, जब वह खुद शहतीरको थामे हुए है। पहले उसने संभाल की है तो उसकी भी संभाल हो गयी है। इसी तरह यह निराकार परमात्मा रूपी दात, जो विरलोंको ही प्राप्त होती है, जिसका कोई मोल नहीं, जो जन्मों-जन्मोंकी भटकनके बाद प्राप्त होती है, ऐसा नाम रूपी हीरा जब इस झोलीमें पड़ जाता है तो जो इसकी संभाल कर लेता है, वह वास्तवमें आनंदित रहता है, हमेशा सुखी रहता है। उसके नजदीक कोई तृष्णा नहीं आती। अभिमान, दुख या कोई बुरी भावना, उसके मनमें प्रवेश नहीं करती। इसकी संभालका जरिया भी बताया है, वह जरिया यही है, जो आप संत नित्य प्रति करते हैं। साधसंगत करते हैं, सेवा करते है, सिमरन करते हैं। लेकिन यह तीनों कार्य निष्काम भावनासे जब करते हैं तो इस हीरेकी संभाल हो जाती है। यह कभी हाथोंसे नहीं जाता।