नई दिल्ली, । उपराष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष की संयुक्त प्रत्याशी मार्गरेट अल्वा गैर-भाजपा दलों के बीच बढ़ती फूट के कारण भले ही एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही हैं, लेकिन वे इसे लेकर परेशान नहीं हैं। उन्हें लगता है कि संख्या हमेशा स्विंग हो सकती है। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि हम आराम से बैठकर यह नहीं कह सकते कि हमारे पास पर्याप्त संख्याबल नहीं है, इसलिए हम चुनाव नहीं लड़ेंगे। उन्होंने कहा कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जीत या हार ज्यादा महत्व नहीं रखती। आपको चुनौती स्वीकार करनी चाहिए।
सोमवार से प्रचार अभियान की करेंगी शुरुआत
अल्वा सोमवार दोपहर बाद से अपने प्रचार अभियान की शुरुआत करेंगी। वे संसद भवन के केंद्रीय हाल में विभिन्न पार्टियों के नेताओं के साथ बैठक करेंगी। छह अगस्त को होने वाले उपराष्ट्रपति चुनाव में अब एक पखवाड़े से भी कम समय बचा है। पूर्व राज्यपाल ने कहा कि वे ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस पार्टी के उपराष्ट्रपति चुनाव से दूर रहने के फैसले से स्तब्ध हैं।
ममता मेरी अच्छी मित्र
उन्होंने कहा कि ममता विपक्ष को एकजुट करने के लिए पूरे आंदोलन का नेतृत्व करती रही हैं। ममता मेरी अच्छी मित्र हैं और उनके पास अभी चुनाव से दूर रहने के फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए पर्याप्त समय है। विपक्षी पार्टियों में फूट पर उन्होंने कहा कि यह पारिवारिक झगड़े जैसा है। अलग-अलग दलों की अलग-अलग धारणाएं और स्थितियां होती हैं। लेकिन, हम बैठकर बात करेंगे और इसे सुलझा लेंगे। उन्होंने कहा कि ममता विपक्षी एकता का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। वह हमेशा से भाजपा से लड़ती रही हैं। वह भाजपा को जीतने में कतई मदद नहीं कर सकती हैं।
राजनीतिज्ञ के बच्चे राजनीति में आते हैं तो इसमें क्या गलत
राजनीति में परिवारवाद पर उन्होंने कहा कि अगर किसी डाक्टर का बेटा डाक्टर बन सकता है, वकील का वकील और व्यापारी का बेटा व्यापारी तो राजनीतिज्ञ के बेटा-बेटी का राजनीति में आना क्या गलत है? वे चुनाव लड़ते हैं, जनता उन्हें योग्यता के आधार पर स्वीकारती है तो इसमें कुछ बुरा नहीं। लोकतंत्र में अगर जनता आपको चुनती है तो आप सदन में पहुंच जाते हैं और नकारती है तो आप बाहर हैं। उदाहरण के तौर पर 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों हार गए थे। अंतिम निर्णय तो जनता के ही हाथ में है।