प्रणय कुमार
विरला ही कोई ऐसा भारतीय होगा जो किसी न किसी क्षेत्रमें बंगालकी असाधारण प्रतिभा एवं तीक्ष्ण बौद्धिकतासे प्रभावित न हुआ हो। परन्तु कैसी विचित्र विडंबना है कि जो बंगाल कला, सिनेमा, संगीत, साहित्य, संस्कृतिकी समृद्ध विरासत और बौद्धिक श्रेष्ठताके लिए देश ही नहीं, पूरी दुनियामें विख्यात रहा हो, वह आज चुनावी हिंसा, अराजकता, रक्तपातके लिए जाना जाने लगा है। राज्य विधानसभाके लिए चले रहे चुनाव प्रचारके दौरान इस बार वहां भाषाकी मर्यादाका जमकर उल्लंघन हुआ, नैतिकता एवं मनुष्यताको ताकपर रख दिया गया, संसदीय परंपराओंकी जमकर धज्जियां उड़ायी गयीं, एक-दूसरेपर अनर्गल आरोपो-प्रत्यारोपोंकी झड़ी लगा दी गयी, कोविड बचावके दिशा-निर्देशोंकी घनघोर उपेक्षा एवं अवमानना की गयी और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि सभी पक्षोंने किसी न किसी स्तरपर गंभीरता, जिम्मेदारी एवं सरोकारधर्मिताकी कमी दर्शायी। ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेसने तो सख्ती किये जानेपर उलटे चुनाव आयोग एवं केंद्रीय सुरक्षाबल जैसी संस्थाओंकी साख एवं विश्वसनीयतापर ही सवाल उछाल दिया। वहां छिड़ी चुनावी रंजिशोंसे उठती हिंसक लपटोंने स्त्री-पुरुष, बाल, वृद्ध, जवान किसीको नहीं बख्शा। ८२ वर्षीय शोभा मजूमदारके सूजे हुए होठ और चोटिल चेहराको भुला पाना कदाचित किसी संवेदनशील व्यक्तिके लिए संभव नहीं! चुनावी हिंसाकी इससे क्रूर, विद्रूप एवं भयानक तस्वीर कोई अन्य नहीं याद आती। उस बूढ़ी मांका दोष केवल इतना था कि उसका बेटा सत्तारूढ़ दलकी विचारधारा और नीतियोंसे असहमत था। इस असहमतिके कारण ही त्रिलोचन महतो, अशोक सरकार, गोकुल जेना गणपति मोहता, मनीष शुक्ला, देवेंद्र नाथ राय, गणेश राय, चंद्र हलदर, पूर्ण चरणदास, रॉबिन पाल, सुखदेव प्रामाणिक जैसे दर्जनों बीजेपी कार्यकर्ताओं, नेताओंकी दिन-दहाड़े हत्या कर दी गयी। चाहे वह वामपंथी दलका शासन हो या उसके बाद सत्तापर आरूढ़ तृणमूल कांग्रेसका, दोनोंने हिंसा और हत्याको राजनीतिक उपकरणकी तरह इस्तेमाल किया। क्या ऐसे ही बंगालकी कल्पना बंकिम-रवींद्र-सुभाषने की होगी। वामपंथियोंके शासनकालसे भी अधिक भयावह-रक्तरंजित वर्तमान परिवेशमें ममता बनर्जी द्वारा दिया गया ‘मां, माटी, मानुषÓ का लोकप्रिय नारा क्या केवल छलावा नहीं लगता। बंगाली अस्मिताके नामपर सत्ताकी मंजिलें तय करनेवाले दलों एवं नेताओंको क्या ऐसी हिंसा एवं अराजकतापर ग्लानि एवं पश्चाताप नहीं होना चाहिए। सोचनेवाली बात है कि प्रतिभा एवं पांडित्य, आस्था एवं विश्वास, नव-जागरण एवं सामाजिक सुधारोंकी धरती बंगालके भद्रलोकको ऐसी हिंसा एवं अराजकतासे राज्यके बाहर अकारण कैसी-कैसी स्थितियों-टिप्पणियोंका सामना करना पड़ता होगा। एक दौरमें जब बिहारमें अपहरण उद्योगोंकी तरह फल-फूल रहा था, शासनके संरक्षणमें मतदान केंद्रोंपर हिंसा-लूटपाट आम बात थी, मसखरेबाजीको जनप्रिय राजनीतिका प्रतीक बना दिया गया था और जाने-अनजाने भाषाके भदेस-मनमाने-नाटकीय प्रयोगको ही बिहारियोंकी पहचान समझा जाने लगा था, उसकी टीस आज भी हर उस बिहारीके हृदयमें उठती है जो हर प्रकारकी प्रतिभा-सामथ्र्यसे परिपूर्ण एवं शुद्ध-सुसंस्कृत भाषाके विज्ञ होनेके पश्चात भी प्रदेशके बाहर या तो वैसी ही मूढ़ताके पर्याय मान लिये गये या राजनीतिक लाभ लेनेके लिए योजनापूर्वक बनायी गयी उस पहचानका भार ढोनेको अभिशप्त हुए। ममता बनर्जी हों या कोई अन्य, उन्हें सोचना होगा कि प्रदेशकी सार्वजनिक छवि या नेताओंके अटपटे बयानों एवं व्यवहारोंका दंश और हानि-लाभ अंतत: वहांकी जनताको ही भुगतना पड़ता है।
दरअसल पश्चिम बंगालके राजनीतिक चाल-चरित्रमें बीते छह दशकोंसे व्याप्त हिंसाके उत्तरदायी मूल कारणों और कारकोंकी कभी खुली, स्पष्ट एवं ईमानदार विवेचना ही नहीं की गयी। क्योंकि इस देशके अधिकांश बुद्धिजीवियोंमें अपने वामपंथी झुकाव या वैचारिक खेमेबाजीके कारण उसके विरुद्ध बोलनेका साहस ही नहीं है। ऐसा करते ही उन्हें सत्ता-संस्थानमें वर्षोंसे प्रतिष्ठापित वामपंथी दिग्गजोंका कोपभाजन बनने या प्रशंसा-प्रसिद्धि-पहचान-पुरस्कारसे वंचित होनेका डर सताने लगता है। इसलिए वह हिंसा एवं खूनी क्रांतिमें विश्वास रखनेवाले वामपंथियोंको कठघरेमें खड़ा करने या उनसे तीखे सवाल पूछनेसे बचते हैं। सच यही है कि १९७७ में वाममोर्चेकी सरकार बननेके बादसे ही वहांकी सरकारी मशीनरीका भारी पैमानेपर राजनीतिकरण होता चला गया। पुलिस-प्रशासनसे लेकर अधिकतर सरकारी विभाग एवं अधिकारी कम्युनिस्ट कैडरकी तरह काम करने लगे। गैस-बिजली-पानी कनेक्शनसे लेकर राशन कार्ड, आवास प्रमाण-पत्र बनवाने या रोजमर्राकी तमाम जरूरतोंके लिए आम-निष्पक्ष नागरिकोंको कम्युनिस्ट कैडरों, स्थानीय नेताओं, दबंगोंपर निर्भर रहना पड़ता था। जिसने भी इन वामपंथी निरंकुशता या मनमानेपनके विरुद्ध मुखर एवं निर्णायक आवाज उठायी उसे या तो भय दिखाकर चुप करा दिया गया। १९७७ से २०११ के बीच कम्युनिस्टोंके शासनकालमें ही हिंसा बंगालका प्रमुख राजनीतिक चरित्र बना।
ममता बनर्जी खुद अनेक बार वामपंथी हिंसाकी शिकार हुईं। २०११ में जब वह सत्तासीन हुईं तो हिंसक दौरके अंत एवं अवसानकी उम्मीद जगी। परन्तु हुआ इसके ठीक विपरीत। सत्तासे अपदस्थ होनेके पश्चात सरकारी सुविधाओं एवं पैसोंकी मलाई खानेके अभ्यस्त वामपंथी कैडरों और स्थानीय नेताओं-दबंगोंने तृणमूलका दामन थाम लिया। परिणामत: बंगालकी सत्ता बदली, परन्तु हिंसक चरित्र नहीं बदला। वस्तुत: नेतृत्वके पास यदि नीति, नीयत और दृष्टि हो तो कार्यकर्ताओंको दिशा मिलती है। परन्तु दिशा और दृष्टि तो दूर, ममता बनर्जीका तल्ख तेवर, आक्रामक अंदाज और गुस्सैल मिजाज कई बार हिंसाके लिए उनके कार्यकर्ताओंको उकसाने-भड़कानेका ही काम करता आया है और कोढ़में खाज जैसी स्थिति हालके वर्षोंमें तेजीसे बदलती वहांकी डेमोग्राफी, रोहिंगयाओं एवं बंगलादेशी घुसपैठियोंकी बढ़ती तादाद, सत्तारूढ़ दल द्वारा वोट बैंकके लालचमें उनका भयानक पोषण्-संरक्षण-तुष्टीकरणसे निर्मित होती चली गयी। वस्तुत: आज वहां जो संघर्ष दिख रहा है, वह प्रतिगामी-यथास्थितिवादी और प्रगत-परिवर्तनकामी शक्तियोंके मध्य है। आज सम्पूर्ण देश और दुनियाकी दृष्टि वहां चल रहे चुनाव और उसके परिणामपर टिकी है। पश्चिम बंगालके हितों और सरोकारोंसे जुड़े हर जागरूक एवं संवेदनशील व्यक्तिकी यही इच्छा है कि चाहे कोई जीते, कोई हारे, परन्तु हिंसा एवं अराजकताके दशकों पुराने खेलपर अब अविलंब अंकुश लगना चाहिए, क्योंकि लोकतंत्रमें हिंसाके लिए कोई स्थान नहीं होता।