सम्पादकीय

रूस और अमेरिकामें बढ़ती मित्रता


डा. गौरीशंकर राजहंस

अमेरिका और रूस दोनों महाशक्तियां एक-दूसरेके मुकाबले काफी ताकतवर थीं और लगता भी नहीं था कि एक-दूूसरेकी ताकतमें कभी कोई कमी पड़ेगी। परन्तु ७० का दशक आते-आते रूस कमजोर पड़ता गया और पड़ोसके जिन देशोंपर उसने नियंत्रण कर रखा था वह देश धीरे-धीरे रूससे किनारा कर आजाद होते गये। आर्थिक दृष्टिसे भी रूस कमजोर पडऩे लगा। सामरिक दृष्टिसे भी वह अमेरिकाके सामने बौना होता गया। संकटकी इस घड़ीमें भारतने गुटनिरपेक्षताकी नीति अपनायी। अमेरिका और पश्चिमके देशोंने भारतकी गुटनिरपेक्ष नीतिका मजाक उड़ाया। परन्तु हर संकटकी घड़ीमें रूसने भारतका साथ दिया। सुरक्षा परिषदमें और बाहर भी रूसने आगे बढ़कर भारतका साथ दिया। परन्तु ७० का दशक आते-आते रूस कमजोर पड़ गया। भारतने रूसका साथ फिर भी नहीं छोड़ा। इस बीच एशिया-प्रशान्त क्षेत्रमें चीनका दबदबा बढ़ता गया। चीनके बढ़ते दबदबेको देखकर अमेरिकाके कान खड़े होते गये। रूसका बहुत बड़ा भाग जो साईबेरियाके पास स्थित है वहां चीनकी सीमा लगती है जहां १४ करोड़ चीनी रहते हैं। जबकि रूसके वहां मात्र एक करोड़ निवासी रहते हैं। रूसको कमजोर पड़ता देखकर चीन इस क्षेत्रपर अपना दावा ठोकता रहा है जिसे रूस सिरेसे खारिज और नापसन्द करता है। इस बीच रूस और अमेरिकाकी तनातनी बहुत बढ़ गयी। उन्हीं दिनोंमें ओबामा प्रशासनने एशिया-प्रशान्त क्षेत्रकी नीतिकी स्थापना की।

इस दौरान जो बाइडेन अमेरिकाके उपराष्ट्रपति थे और ब्लादिमिर पुतिन रूसके प्रधान मंत्री थे। इन दोनों नेताओंके बीच एक बार तो मुलाकात हुई थी। परन्तु उसके कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकले। इस बीच चीनने एशिया-प्रशान्त क्षेत्रमें अपना दबदबा बहुत मजबूत कर लिया। जब पुतिन राष्ट्रपति हुए तब लाचार होकर अमेरिकाको पाठ पढ़ानेके लिए उन्होंने चीनसे दोस्ती कर ली। परन्तु चीनकी विस्तारवादी नीतिको पुतिन अच्छी तरह समझते थे। इसलिए उन्होंने मौकेकी नजाकतको भांपते हुए अमेरिकासे हाथ मिलाना उचित समझा। पुतिनके सलाहकारोंने भी पुतिनको यह सलाह दी थी कि पुरानी कटुताको भूलकर नये सिरेसे अमेरिकाके साथ सबंध स्थापित किये जायं। उधर अमेरिकाने भी एशिया-प्रशान्त क्षेत्रमें चीनकी बढ़ती हुई ताकतको देखकर रूसने अच्छे संबंध स्थापित करना ही उचित समझा। कुछ वर्षों पहले अमेरिका और रूसके संबंध इतने खराब हो गये थे कि दोनों देशोंने एक-दूसरेके यहांसे अपने-अपने राजदूज और राजनयिकोंको अपने देशोंमें वापस बुला लिया। परन्तु जैसे-जैसे समय बीतता गया दोनों देशोंने यह महसूस किया कि चीन उन देशोंका असली दुश्मन है। इसीलिए चीनसे पीछा छुड़ानेके लिए दोनों देशोंके नेताओंने आपसमें हाथ मिलाना ही उचित समझा। समयकी नजाकतको देखते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और रूसके राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिनने जेनेवामें एक-दूसरेसे मिलना तय किया। यह मुलाकात दोनों नेताओंकी जेनेवामें हुई जिसपर सारी दुनियाकी निगाहें टिकी हुई थी। इस बैठकके शुरूमें पुतिनने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा कि अमेरिकाके पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ट ट्रम्पसे उनकी नीति एकदम भिन्न हैं और सही मायनेमें अमेरिकाके नये राष्ट्रपति जो बाइडेन रूससे सच्ची मित्रता कायम करना चाहते हैं।

इस बैठकमें दोनों देशोंके नेताओंने अनेक आपसी मतभेदके मुद्दोंपर चर्चा करते हुए उन्हें सुलझानेका प्रयास किया। सबसे बड़ी बात यह हुई कि दोनों देशोंके नेताओंने फैसला किया कि पुरानी कटुताओंको भूलकर दोनों देश एक-दूसरेके देशोंमें अपने दूतावास खोल देंगे और एक-दूसरेके यहां अपने राजदूत और राजनयिकोंको फिरसे नियुक्त कर देगें। दोनों नेताओंने यह तय किया कि विभिन्न क्षेत्रोंमें वह मिलकर काम करेंगे और किसी भी हालतमें अन्य देशोंकी गुप्तचरीको बढ़ावा नहीं देंगे। हालके वर्षोंमें अमेरिका और रूसके बीच इतने मधुर संबंध कभी नहीं रहे थे। अंतरराष्ट्रीय राजनीतिके जानकारोंका कहना है कि इस जेनेवा शिखर वार्तामें बहुत ज्यादा उपलब्धि नहीं भी हुई लेकिन यह तो निश्चित रूपसे हुआ कि जमी हुई बर्फ पिघलना शुरू हो गयी। इसके असली मायने यह थे कि दोनों देश अन्दर ही अन्दर एशिया-प्रशान्त क्षेत्रमें चीनके दबदबेसे आशंकित थे। उन्हें यह पता था कि यदि चीन एक बार किसी क्षेत्रको हड़प लेता है या किसी क्षेत्रमें अपने पैर जमा लेता है तो आसानीसे वह वहांसे नहीं निकलता है। अब सारा संसार इस बातको समझ गया है कि चीनकी मंशा तीसरे विश्वयुद्धको शुरू करनेकी है और कोई न कोई बहाना कर सारे संसारपर अपना आधिपत्य स्थापित करनेकी मंशा रखता है।

पिछले वर्षोंमें जो कुछ भी हुआ हो परन्तु आजकी तारीखमें रूस और अमेरिका दोनोंसे भारतके मित्रवत् संबध हैं। कल क्या होगा यह कहना कठिन है। परन्तु यदि चीन दोनों देशोंको आंख दिखाता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब अमेरिका, रूस और भारत मिलकर चीनका मुकाबला करेंगे। शीतयुद्धके बाद ऐसा लग रहा था कि अमेरिका और रूसमें अब भविष्यमें कभी मित्रवत् संबंध स्थापित नहीं होंगे। परन्तु धीरे-धीरे रूसकी आर्थिक स्थिति खराब होती गयी और वह उन देशोंपर नियंत्रण नहीं रख सका, जिन्हें वह अपने खेमेमें रखे हुए था। रूसको कमजोर देखकर उसके अन्य मित्र देश भी उसका साथ छोड़ते गये। रूसकी हालत तब मजबूत हुई जब पुतिनने सत्ता संभाली और संसारको यह विश्वास होता गया कि पुतिनके नेतृत्वमें रूस फिरसे एक शक्तिशाली देश बन जायगा। भारत आज भी अपनी जरूरतके ५६ प्रतिशत सामरिक हथियार रूससे ही खरीदता है। इसलिए रूसके साथ बना रहना भारतकी मजबूरी ही नहीं आवश्यकता भी है। भारतकी मित्रताको देखकर संसारके अन्य देश भी रूसके खेमेमें आने लगे हैं। यदि निकट भविष्यमें अमेरिका और रूस दोनों महाशक्तियोंके सही अर्थमें मित्रवत् संबंध रहे तो यह भारत सहित दुनियाके अन्य देशोंके लिए अत्यन्त ही सुखद होगा। रूसकी हालत पहलेसे बहुत कमजोर हो गयी थी। परन्तु रूसने धीरे-धीरे अपनी हालत मजबूत की है और एशिया प्रशान्त क्षेत्रके देशोंसे वह पहलेकी तरह ही अपने मित्रवत् संबंध कायम कर रहा है। बदली हुई परिस्थितियोंमें देर या सबेर अमेरिका और रूस भारतको साथ लेकर चीनका मुकाबला करेंगे। सारे संसारकी आंखें रूस और अमेरिकाकी इस नयी-नयी मित्रतापर टिकी हुई हैं और लोग बड़ी उत्सुकतासे इस बातका इन्तजार कर रहे हैं कि अब आगे क्या होगा?