श्रीराम शर्मा
शिक्षित, संपन्न और सम्मानित होनेके बावजूद भी कई बार व्यक्तिके संबंधमें गलत धारणाएं उत्पन्न हो जाती हैं और यह समझा जाने लगता है कि योग्य होते हुए भी अमुक व्यक्ति के व्यक्तित्वमें कमियां हैं। इसका कारण यह है कि शिक्षित, संपन्न और सम्माननीय होते हुए भी व्यक्तिके आचरणसे कहीं न कहीं कोई फूहड़ता टपकती है, जो उसे अशिष्ट कहलवाने लगती है। विश्व स्तरपर बड़ी संख्यामें लोग संपन्न और शिक्षित भले ही हों, किंतु उनके व्यवहारमें यदि शिष्टता और शालीनता नहीं है तो उनका लोगोंपर प्रभाव नहीं पड़ता। उनकी विभूतियोंकी चर्चा सुनकर लोग भले ही प्रभावित हो जायं परंतु उनके संपर्कमें आनेपर अशिष्ट आचरणकी छाप उस प्रभावको धूमिल कर देती है। शिक्षा, संपन्नता और प्रतिष्ठाकी दृष्टिसे कोई व्यक्ति कितना ही ऊंचा हो, लेकिन उसे हर्षके अवसरपर हर्ष, शोकके अवसरपर शोककी बातें करना न आये तो लोग उसका मुंह देखा सम्मान भले ही करें, परंतु मनमें उसके प्रति कोई अच्छी धारणाएं नहीं रख सकेंगे। शिष्टाचार और लोक व्यवहारका यही अर्थ है कि हमें समयानुकूल आचरण तथा बड़े-छोटोंसे उचित बर्ताव करना आये। यह गुण किसी विद्यालयमें प्रवेश लेकर अर्जित नहीं किया जा सकता। इसका ज्ञान प्राप्त करनेके लिए संपर्क और पारस्परिक व्यवहारका अध्ययन तथा क्रियात्मक अभ्यास ही किया जाना चाहिए। अधिकांश व्यक्ति यह नहीं जानते कि किस अवसरपर कैसे व्यक्तिसे कैसा व्यवहार करना चाहिए। कहां किस प्रकार उठना-बैठना चाहिए और किस प्रकार चलना-रुकना चाहिए। यदि खुशीके अवसरपर शोक और शोकके समय हर्षकी बातें की जायं या बच्चोंके सामने दर्शन और वैराग्य तथा वृद्धजनोंकी उपस्थितिमें बालोचित या यौवजनोचित शरारतें, हास्य विनोद भरी बातें की जायं अथवा गर्मीमें चुस्त, गर्म, भड़कीले वस्त्र और शीत ऋतुमें हल्के कपड़े पहने जायं तो देखनेवालेके मनमें आदर नहीं उपेक्षा और तिरस्कारकी भावना ही आयगी। कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, हम घरमें हो या बाहर कार्यालयमें हो अथवा दुकानपर और मित्रों-परिचितोंके बीच हों अथवा अजनबियोंमें, हर क्षण व्यवहार करते समय शिष्टाचार बरतना आवश्यक है। कहा गया है कि शिष्टाचार जीवनका वह दर्पण है, जिसमें हमारे व्यक्तित्वका स्वरूप दिखाई देता है। इसीके द्वारा मनुष्यका समाजसे प्रथम परिचय होता है। यह न हो तो व्यक्ति समाजमें रहते हुए भी समाजसे कटा-कटा-सा रहेगा और किसी प्रकार आधा-अधूरा जीवन जीनेके लिए बाध्य होगा। जीवन साधनाके साधकको यह शोभा नहीं देता। उसे जीवनमें पूर्णता लानी ही चाहिए। शिष्टाचारको भी जीवनमें समुचित स्थान देना ही चाहिए। शिष्टता मनुष्यके मानसिक विकासका भी परिचायक है। कहा जा चुका है कि कोई व्यक्ति कितना ही शिक्षित हो, किंतु उसे शिष्ट और शालीन व्यवहार न करना आये तो उसे अप्रतिष्ठा ही मिलेगी, क्योंकि पुस्तकीय ज्ञान अर्जित कर लेनेसे तो ही बौद्धिक विकास नहीं हो जाता।