सम्पादकीय

सार्वभौमीकरणसे शिक्षाकी गुणवत्तामें सुधार


जोगिन्दर सिंह

किसी देशको अपना भविष्य उज्ज्वल बनानेके लिए उसके बचपनकी देखभाल, पालन-पोषण और संभाल करनी आवश्यक है। जीवनके पहले आठ सालमें और खासकर बाल्यावस्थाके पहले तीन सालके दौरान बच्चेका ठीक पालन-पोषण और देखभाल करना बहुत जरूरी है। इसका असर बच्चेके पूरे जीवनपर पड़ता है। शुरुआती सालोंमें देखभाल और बच्चोंका सही पालन-पोषण उनके फलने-फूलनेमें मदद करता है। इस तथ्यके वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि विद्यालयमें प्राप्त की जानेवाली अधिकांश प्रगति तीन वर्षकी आयुमें अर्जित बच्चोंकी संज्ञानात्मक सामाजिक और भावनात्मक विकासपर निर्भर करती है। बाल्यावस्थाके प्रारंभमें उनके अच्छे पालन-पोषण और मूल्य आधारित देखभाल बच्चोंको विद्यालयमें प्रवेशके बाद स्वयंको ढालनेमें सहायता प्रदान करती है और विद्यालयमें बेहतर शिक्षा अर्जित करना सुनिश्चित करती है। निर्धन एवं साधनहीन परिवारोंके बच्चोंकी देखभालके लिए बहुत अधिक ध्यान देनेकी  आवश्यकता है। निर्धन परिवारोंकी माताएं बच्चेको जन्म देनेके कुछ दिनों बाद ही फिरसे अपने परिवारकी आजीविका कमानेके लिए कामपर चली जाती हैं। न ही तो सहीसे वह अपने खाने-पीनेका ध्यान रख पाती हैं और न ही नवजात शिशुका भरण-पोषण कर पाती हैं। इसी कारण प्रारंभिक बाल्यावस्थामें कुपोषणके फलस्वरूप विकास संबंधी गंभीर बाधाएं उत्पन्न हो जाती हैं, जो जीवनकी आगामी अवस्थाओंमें भी जारी रहती हैं। जब बच्चेको भूख लगती है और मां उसके पास हो और दूध पिलाती है तो बच्चेमें सुरक्षाकी भावना आती है। बच्चोंको मांके दूधकी आवश्यकता पोषणके लिए आवश्यक होती है। बच्चोंको जब अपनी पसंदकी चीजें नहीं मिलती या चाहकर भी वह कुछ नहीं कर पाते तो वह कुंठित हो सकते हैं। बच्चे ज्यादातर अंधेरे एवं अनजान लोगोंसे डरते हैं। बच्चोंको जब हम बच्चा समझकर या उनकी हरकतोंपर हंसते हैं या उन्हें सजा देते हैं तो वह बड़े होकर शर्मीले और अपनी भावनाओंको सामान्य रूपसे प्रकट करनेमें असमर्थ होते हैं। बच्चोंकी देखभालमें यदि उनके मनकी भावनाओंके प्रति संयम और हमदर्दी रखी जाती है तो उनके प्रसन्नचित्त, संतुलित एवं सुरक्षित ढंगसे बढऩेकी संभावना बढ़ जाती है। बच्चोंके सामान्य विकासको शारीरिक सजा या हिंसाका प्रदर्शन बहुत अधिक नुकसान पहुंचाता है। गुस्सेमें जिन बच्चोंको सजा दी जाती है तो खुद उनके हिंसक होनेकी संभावना बढ़ जाती है। जिन परिवारोंमें बचपन पल रहा है, यदि उन घरोंमें शराब पीकर गाली-गलौज, लड़ाई-झगड़ा, मांकी पिटाई और किसी भी अन्य प्रकारकी हिंसा उस बच्चेकी भावनात्मक और संवेगात्मक विकासपर बहुत अधिक नुकसान पहुंचाती है। छोटे बच्चोंको लंबे समयतक अकेला नहीं छोडऩा चाहिए। यह उनके मानसिक एवं शारीरिक विकासको धीमा कर देता है। लड़के या लड़कीमें किसी भी प्रकारका भेद नहीं होना चाहिए। जितनी लड़कोंके लिए देखभालकी आवश्यकता होती है, उतनी ही लड़कियोंके लिए भी होती है। पैदा होनेके साथ ही बच्चे तेजीसे सीखने लगते हैं। यदि उन्हें पौष्टिक भोजन और उनकी सेहतकी सहीसे देखभालके साथ  ध्यान दिया जाय तो वह बड़ी ही तेजीसे बढ़ते और जल्दी ही सीखते भी हैं।

विकास और सीखनेका सबसे जरूरी रास्ता बच्चोंका दूसरोंके साथ मेलजोल होता है। माता-पिता और देखभाल करनेवाले बच्चेके साथ जितनी बातें करेंगे और उनपर ध्यान देंगे, बच्चा उतनी तेजीसे सीखेगा। नवजात और छोटे बच्चेके सामने माता-पिता और देखभाल करनेवालेको बातचीत करना और गाना चाहिए। यदि छोटा बच्चा बातचीत या गाना नहीं भी समझनेके लायक है तो भी बातचीत उनकी भाषा और सीखनेकी क्षमताका विकास करती है। देखभाल करनेवाले लोग यदि बच्चेको सुनने, देखने, पकडऩे और खेलनेके लिए नयी और दिलचस्प चीजें देंगे तो वह खिलौने उनके सीखने और बढऩेमें मदद कर सकते हैं। एक मांके गर्भ धारण और प्रसवके बाद तक जच्चा-बच्चाको पोषक भोजन और सभी तरहके टीकाकरण और वंचित एवं निर्धन परिवारोंके लिए केंद्र एवं राज्य सरकारोंने बहुत सारी योजनाओंको शुरू किया है। लेकिन समयकी मांग है कि उन सभी योजनाओंको अंतिम व्यक्तितक उसी प्रारूपमें पहुंचानेके लिए और अधिक प्रयासोंकी आवश्यकता है। हर गरीब एवं वंचित परिवार और जरूरतमंद महिलाको उसके बच्चेको एक निश्चित अवधितक पालन-पोषण करनेके लिए आर्थिक सुरक्षाकी बहुत आवश्यकता है। समाजके साधन-संपन्न लोग भी इस ओर अपना हाथ बढ़ा सकते हैं। ग्राम पंचायत स्तरपर भी ऐसे नवजात शिशुओंके परिवारोंकी पहचान की जा सकती है। ग्राम पंचायतें क्षेत्रमें बच्चोंका उचित विकास सुनिश्चित करनेके लिए एक निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं। जब बच्चेको खेलनेके लिए अवसर दिये जाते हैं और खोजबीनके लिए माता-पिता या देखभाल करनेवाले द्वारा बढ़ावा दिया जाता है तो बच्चोंको नया सीखने, उनके शारीरिक, सामाजिक, भावनात्मक और तर्कक्षमताके विकासको बढ़ावा मिलता है।

बच्चोंके इर्द-गिर्द जो लोग रहते हैं उनके व्यवहारसे भी बच्चे बहुत कुछ सीखते हैं। उनके व्यवहारकी नकल करते हैं। बच्चोंको क्या करना है, क्या नहीं, इसकी जगह क्या हो रहा है, क्या वह देख रहे हैं, इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। छोटे बच्चोंको बड़े बच्चों, बुजुर्गोंकी अच्छाइयोंके उदाहरण देने चाहिए। मूल्य शिक्षाप्रद कहानियां सुनानी चाहिए जो उनके व्यक्तित्वके विकासमें ज्यादा प्रभाव डालती हैं। सभी बच्चे एक जैसे तरीकोंसे बढ़ते और विकसित होते हैं, लेकिन हर बच्चेके विकासकी अपनी गति होती है। अभिभावकोंको बच्चोंसे बात करनी चाहिए और बच्चोंकी हर बातको भी गम्भीरतासे सुनना चाहिए। इस जन-जागरणमें, अभिभावकोंको यह जानकारी दी जानी चाहिए कि बच्चे कैसे सीखते हैं। सभी बच्चोंको बढऩे और उनके विकासमें अंतर होता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति २०२० का एक प्रमुख उद्देश्य भारतमें दी जानेवाली शिक्षाको वैश्विक स्तरपर लाना है। पुरानी राष्ट्रीय शिक्षा नीतिमें कई संशोधन करके नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति २०२१ में शिक्षाका सार्वभौमीकरण करके शिक्षाकी गुणवत्तामें सुधार लाना है, जिससे देशके बचपनको अच्छी शिक्षा प्राप्त हो। इस लक्ष्यकी प्राप्तिके लिए अभिभावकों सहित पूरे समाजको बच्चोंके सीखनेके तरीकोंसे परिचित होना अति आवश्यक है।