सम्पादकीय

अंतसकी भाषा है प्रार्थना


हृदयनारायण दीक्षित

सभी सभ्यताओंमें प्रार्थना है। ऋषियोंने नदियों, धरतीको माता कहा, आकाशको पिता कहा। ऐसे रिश्तोंकी आंचमें तर्क पिछलते रहे। ऊपर आकाश पिताकी छाया और संरक्षण नीचे धरती माताका आधार।

शंकराचार्यने ब्रह्मïको सत्य और जगत्को माया देखा था। उन्हें समूचे ब्रह्मïको ‘अद्वैत’- दो नहीं बताया लेकिन प्रार्थना और स्तुतियां उन्होंने भी की। प्रार्थनाकी शक्ति अनूठी है। प्रार्थना कहीं भी, कभी भी। वैदिक समाजका जीवन ही प्रार्थनामूलक है। प्रार्थना जीवनशैलीका रूपान्तरण करती है। ईश्वर आस्थावाले पंथों/मतों/मजहबोंने भी संसारमें दोको ही माना है। पहला-ईश्वर और दूसरा उसका यह सृष्टि-जगत। हम उसीके गढ़े जगत्के हिस्से हैं। आस्थामें हमारी अपनी कोई गणना नहीं है लेकिन दर्शन, विज्ञान और अनुभूतिमें हमारी गणना है। हमारा होना वास्तविकता है, यथार्थ है। बेशक हम इस विराट जगत्में एक छोटी इकाई हैं, लेकिन इकाई होना कम महत्वपूर्ण नहीं है। गणितके दृष्टिकोणसे इकाईसे ही अनन्त बनता है। समग्रतामें अनन्त परिपूर्ण है, इकाईयां उसीका हिस्सा हैं। इकाई और अनन्तकी प्रीति जरूरी है। अनन्तकी प्रसन्नतामें हमारी प्रसन्नता है। दुनियाकी सभी संस्कृतियोंमें प्रार्थना है। सबके अपने कर्मकाण्ड हैं। अलग-अलग तकनीकी और उपासना शैली है लेकिन भारतीय चिंतनकी प्रार्थनाका विकास दार्शनिक अनुभूतिसे हुआ। यहां प्रारम्भमें दो हैं, मैं और विराट हैं। मैं और ईश्वर हैं। मैं और ब्रह्म हैं। सृष्टि और सृष्टा हैं। प्रार्थी और दाता-विधाता हैं। प्रार्थनाके लिए दोकी जरूरत होती है, एक प्रार्थी दूसरा आराध्य। दार्शनिक और वैज्ञानिक प्रार्थी नहीं होते। वह सृष्टि रहस्योंके खोजी होते हैं। उनका कोई आराध्य नहीं होता। लेकिन भारतीय दर्शन और विज्ञान परम्पराके ऋषि-विज्ञानी प्रार्थना भावसे युक्त हैं। इसीलिए पश्चिमके तमाम दार्शनिक भारतीय दर्शनपर ‘भाववादी’ होनेका आरोप लगाते हैं। वह भारतीय दर्शनके यथार्थवादी/भौतिकवादी तत्वोंपर गौर नहीं करते। आस्थाहीनता भौतिकवादी दर्शनकी एक शर्त मानी जाती है। बात ठीक भी है। बिना जाने समझे यूं ही मान लेना विवेकपूर्ण नहीं होता। प्रार्थनाके लिए कोई एक और चाहिए ही। उसीसे अपनी व्यथा कथा बताने और शक्ति पानेकी गुहार लगानी होती है। प्रार्थनाका काव्य भारतमें उगा। प्रार्थनाकी भारतीय अनुभूति अद्भुत है। यहां प्रत्यक्ष भौतिकवाद है। विराट-सम्पूर्णतासे स्तुतियां हैं।

समूचा ऋग्वेद प्रार्थना मूलक है। प्रकृतिके प्रत्येक रूपको तो नमस्कार किया ही गया है। अपने अन्तस्के तमाम भावोंको भी नमस्कार किया गयाा है। वैदिक स्तुतियोंमें द्वैत है, दो हैं लेकिन अनुभूतिके चरमपर दो नहीं- द्वैत नहीं अद्वैत है। प्रार्थना भावजगत्का परम शिखर है इसलिए प्रार्थना यूं ही नहीं होती। स्वाभाविक ही इसके पूर्व तर्क उठते हैं। तर्क संशय देते हैं, दर्शन और अनुभूति समाधान देते हैं। फिर प्रतीति देते हैं। प्रतीतिके बाद विश्वास आता है। विश्वाससे ऊर्जा आती है। दर्शनकी शक्ति द्रष्टा बनाती है। द्रष्टा निर्विचार बनता है। उसके चित्तमें शून्य उभरता है। ऋचाएं इसी शून्यको भरनेके लिए उतावली होती हैं। चित्तका शून्य विराटसे भरता है। प्रार्थनाएं फूटती हैं, स्तुतियां उगती हैं। वैदिक ऋचाएं द्रष्टा ऋषियोंकी अनुभूति हैं। वह अनुभूत सत्य हैं।

प्रार्थना भौतिक विज्ञानसे आगेकी यात्रा है। भौतिक विज्ञान ऊर्जा और पदार्थके रिश्ते बताता है। रसायन विज्ञान ऊर्जा, तत्व और विभिन्न क्रियाओंके कारण परिवर्तित हुए रूप, गुण आदिका विश्लेषण करता है। प्रार्थना रसायन विज्ञानकी काररवाई हैं। प्रार्थना चित्त और कायाके मूल घटकोंमें रासायनिक परिवर्तन लाती है। विश्वास नहीं हो तो प्रयोग करना चाहिए। सुख या दुखकी किसी विशेष परिस्थितिमें रक्तचाप, रक्त विश्लेषणकी रिपोर्ट लेनेके बाद प्रगाढ़भावसे प्रार्थना करनी चाहिए। फिर रक्तचाप और रक्तके मूल संघटकोंका रासायनिक विश्लेषण चौंकानेवाले तथ्य देगा। रासायनिक परिवर्तन बेशक भौतिक परिवर्तनसे बड़ा है लेकिन सृष्टि रहस्योंके खोजी लोगोंके लिए कोई बड़ी बात नहीं। यूं भी एक छोटी-सी दवाकी गोली या गुड़की ढेली भी शरीरमें तमाम रासायनिक परिवर्तन लाती है लेकिन प्रार्थना बहुत बड़ा परिवर्तन लाती है। यह रासायनिक परिवर्तनसे प्रारम्भ होती है। प्रगाढ़ भावदशामें ले जाती है, खण्डित बुद्धिको विवेक बनाती है। बुद्धि खण्डित सूचनाओंका संग्रह होती है। विवेक सार, असार और संसारका निर्णायक है। प्रार्थना विवेकसे भी आगे ले जाती है जहां सार संसार और असारका कोई मतलब नहीं। तब कोई प्रार्थी नहीं होता, न कोई आराध्य। तब न ब्रह्मï बचता है न माया। ऋषियोंने इसे ‘आनन्द लोक’ कहा और ‘आनन्दलोकÓ/बह्मïलोक कोई भौगोलिक धारणा नहीं है।

ज्ञान यात्रामें ढेर सारे साधन हैं। भारतीय परम्पराने प्रस्थानत्रयीकी चर्चा की है। ज्ञान यात्राकी शुरुआतके लिए- प्रस्थानके समय तीन चीजें पास होनी चाहिए। उपनिषद्, ब्रह्मïसूत्र और गीता प्रस्थानत्रयी है। लेकिन इन सबके भी पहले चित्तमें ‘प्रार्थी भाव’ चाहिए। भारतके सभी प्राचीन ग्रन्थ प्रार्थनासे ही प्रारम्भ होते हैं और उपनिषद् शान्ति मन्त्रोंसे। लेकिन शान्तिमन्त्रोंमें भी प्रार्थना है। प्रार्थना ब्रह्मïास्त्र है। ज्ञान यात्राकी प्रथम चेतना जिज्ञासा है। जाननेकी इच्छा ही ज्ञान यात्रापर ले जाती है। लेकिन जिज्ञासाके साथ ‘मैं’ जुड़ता है- मैं जानना चाहता हूं। ‘मैं’ ज्ञान यात्राका बाधक भाव है। प्रार्थी भाव मैंको लघुतम करता है, सृष्टिको महत्तम देखता है। प्रार्थना याचना नहीं होती। वेद और उपनिषद्के ऋषियोंकी प्रार्थनाएं धन्यवाद भावसे फूटी हैं। धन्यवाद भावसे भरा चित्त तरल होकर बहता है। याचक भावका चित्त संकोच और हीनतामें सिकुड़कर जड़ होता है।

प्रार्थनामें बड़ी ऊर्जा है। दर्शन और विज्ञानमें प्रार्थी भावसे उतरना आनन्ददायी है, विद्यार्थी भावसे उतरना संतोषजनक है लेकिन अर्थार्थी बुद्धिसे उतरना व्यर्थ है। प्रार्थनामें शब्दार्थका मूल्य नहीं होता। शब्द स्वयंमें किसी नामका संकेत होते हैं। नाम स्वयं किसी पदार्थका संकेत होता है। पदार्थ स्वयं किसी अरूपका रूप होता है। अरूपकी यात्रामें बौद्धिक अर्थार्थका कोई मतलब नहीं होता। प्रार्थना कोई बौद्धिक कृत्य नहीं है। प्रार्थना हृदयसे हृदयका संवाद है। प्रार्थना इकाई और अनन्तका सम्वाद है। अमावस्यासे पूर्णिमा हो जानेकी अभीप्सा है। प्रार्थनामें शब्दका कोई महत्व नहीं, यहां अन्तसकी भाषा है, विराटसे मनुहार है। नि:शब्द वाक्य हैं। मौनका संगीत है- म्युजिक आफ साइलेंस। नि:शब्द ध्वनि है, निधूर्म अग्नि है और आकांक्षा रहित मांग है।