सम्पादकीय

अभिव्यक्तिकी मर्यादा आवश्यक


दोटूक यह कि संविधान एक रास्ता है और नागरिकोंके अधिकार इसी मार्गसे गुजरते हैं और इसीमें एक है वाक् एवं अभिव्यक्तिका अधिकार जिसका उल्लेख भारतीय संविधानके अनुच्छेद १९(१)(क) के अन्तर्गत देखा जा सकता है। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदीने भी जून २०१४ में कहा था कि यदि हम बोलने और अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रताकी गारंटी नहीं देंगे तो हमारा लोकतंत्र नहीं चलेगा। हालांकि तब इन्हें प्रधान मंत्री बने बामुश्किल एक महीना हुआ था। शालीनता और संविधानकी भावनाके अन्तर्गत की गयी अभिव्यक्ति मर्यादित और सर्वमान्य है। ३ मार्च २०२१ को सर्वोच्च न्यायालयने कहा कि सरकारसे अलग विचार रखना देशद्रोह नहीं है। गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीरके पूर्व मुख्य मंत्री फारूख अब्दुल्लापर देशद्रोहका मुकदमा इसलिए किया गया था कि उन्होंने अनुच्छेद ३७० को लेकर टिप्पणी की थी। ध्यानतव्य हो कि ५ अगस्त २०१९ को जम्मू-कश्मीरसे अनुच्छेद ३७० और ३५ए को समाप्त कर दिया गया था साथ ही केन्द्रशासित प्रदेश बनाते हुए लद्दाखको इससे अलग कर दिया गया। इसे देखते हुए फारूख अब्दुल्लाकी तिलमिलाहट सामने आयी जिसके चलते उनपर देशद्रोहका मुकदमा किया गया था। शीर्ष अदालतने न केवल इस मामलेमें फारूख अब्दुल्लाके खिलाफ दायर याचिकाको खारिज किया, बल्कि याचिकाकर्ताओंपर ५० हजार रुपयेका जुर्माना भी लगाया।

बीते कुछ वर्षोंसे यह देखनेको मिल रहा है कि कई प्रारूपोंमें वाक् एवं अभिव्यक्तिको लेकर देशका वातावरण गरम हो जाता है। जिसके चलते देषद्रोहके मुकदमोंमें भी बाढ़ आयी। अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रता सभी अधिकारोंकी जननी है इसीके चलते सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दे जनमतको तैयार करते हैं। सभी सरकारें यह जानती हैं कि कई काम और बड़े काम करते समय नागरिकोंके विचारोंसे संघर्ष रहेगा और आलोचना भी होगी और ये आलोचनाएं सुधारकी राह भी बतायेंगी। बावजूद इसके सरकारोंके मनके कोनेमें यह जरूर रहा है कि उनकी आलोचना न हो तो अच्छा है परन्तु लोकतंत्रमें इसकी गुंजाइश हो ही नहीं सकती। ये तो इसपर निर्भर है कि अपने मतदाताओं और नागरिकोंकी आलोचनाको कौन कितना बर्दाश्त कर सकता है। लोकतंत्र और अभिव्यक्ति एक ही सिक्केके दो पहलू हैं। एकपर आंच आती है तो दूसरेपर इसकी तपिशका असर पड़ता ही है। इसके आभावमें अंकुशवाली सत्ताका लोप होनेका खतरा रहता है। आंदोलनकारियों, छात्रों, बुद्धिजीवियों, किसानों, मजदूरों, लेखकों, पत्रकारों, कवियों, राजनीतिज्ञों और कई एक्टिविस्टोंपर राजद्रोहके आरोपवाले गाज गिरते रहे हैं और इसे लेकर शायद ही कोई सरकार दूधसे धुली हो। २०११ में तमिलनाडुके कुंडलकुलममें एटमी संयंत्रका विरोध कर रहे किसान प्रदर्शनकारियोंके खिलाफ राजद्रोहके ८८५६ मामले लगाये गये थे जो अपने आपमें एक भीषण स्वरूप है। राष्टï्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरोके मुताबिक २०१४ से २०१८ के बीच २३३ राजद्रोहके मुकदमा किये गये। गौरतलब है कि एनसीआरबीने भी २०१४ से राजद्रोहके मामले जुटाना शुरू किया था। हालांकि ऐसे आरोपोंमें दोषसिद्ध लोगोंकी संख्या मामूली ही है।

देशमें परम्पगत मीडियाके अलावा सोशल मीडिया और न्यू मीडिया समेत कई संचार उपक्रम देखे जा सकते हैं। इससे अभिव्यक्ति न केवल मुखर हुई है, बल्कि वैश्विक स्वरूप लिये हुए है। सोशल मीडिया मानो आवेशसे भरा एक ऐसा प्लेटफॉर्म है जहां सचाईके साथ झूठकी अभिव्यक्ति स्थान घेरे हुए है। बीते फरवरीमें सरकारने इसपर कुछ कठोर कदम उठानेका संकेत दे दिया है। देशमें अभिव्यक्ति बहुत मुखर और आक्रामक होनेकी बड़ी वजह भौतिक स्पर्धाके अलावा लोकतंत्रके प्रति सचेतता भी है। लेकिन यह कहीं अधिक आक्रामक रूप लेती जा रही है। ऐसेमें सरकारोंको भी यह सोचने-समझनेकी आवश्यकता है कि देशको कैसे आगे बढ़ाये और जनताको लोकतंत्रकी सीमामें रहते हुए कैसे मर्यादित बनाये। किसी भी सभ्य देशके नागरिक समाजको ही नहीं, बल्कि सरकारोंको भी विपरीत विचार, आलोचना या समालोचनाको लेकर संवेदनशील होना चाहिए। हालांकि आक्रामकता भी लोकतंत्रकी शालीनता ही है बशर्ते इसकी अभिव्यक्ति देशहितमें हो। सरकारें भी गलतियां करती हैं इसके पीछे भले ही परिस्थितियां जवाबदेह हो परन्तु इतिहास गलतियोंको याद रखता है परिस्थितियोंको नहीं। राहुल गांधीका यह कहना कि आपातकाल एक गलती थी इस बातको पुख्ता करता है। सरकारके फैसले भी कई प्रयोगोंसे गुजरते हैं ऐसेमें जनहितको सुनिश्चित कर पाना बड़ी चुनौती रहती है। लोकनीतियोंको लोगोंतक पहुंचाकर उनके अंदर शान्ति और खुशियां बांटना सरकारकी जिम्मेदारी और जवाबदेही है। यदि ऐसा नहीं होता है तो आलोचना स्वाभाविक है। फारूख अब्दुल्लाके मामलेमें शीर्ष न्यायालयने यह बता दिया है कि अनुच्छेद ३७० और ३५ए हटाना सरकारके क्रियाकलापका हिस्सा है परन्तु इसे लेकर कोई टिप्पणी न करे इसपर प्रतिबंध सम्भव नहीं है। वैसे एक सचाई यह भी है कि व्यक्ति जब बड़ा हो तो अभिव्यक्ति जरा नापतौल कर करना चाहिए क्योंकि उनके बोलनेसे देशका वातावरण और माहौल खतरेमें जा सकता है।

देशद्रोह भारतीय कानूनमें एक संगीन अपराधकी श्रेणीमें आता है। आईपीसीकी धारा १२४ए के अन्तर्गत उसपर केस दर्ज किया जाता है। वैसे किसी भी देशमें सबसे बड़ा अपराध देशद्रोह ही होता है। आईपीसीमें इसकी परिभाषाको देखें तो पता चलता है कि कोई भी व्यक्ति देशविरोधी सामग्री लिखता है या बोलता है या फिर ऐसी सामग्रीका समर्थन करता है, उसका प्रचार करता है इतना ही नहीं, राष्टï्रीय चिह्नïका अपमान करता है साथ ही संविधानको नीचा दिखानेकी कोशिश करता है तो यह देशद्रोह है। सर्वोच्च न्यायालयने सरकारसे अलग विचार रखनेको देशद्रोह नहीं माना है। ऐसा देखा गया है कि नागरिक जिस सरकारको चुनता है लोकहितके सुनिश्चित न होनेकी स्थितिमें वही उससे अलग विचार रखने लगता है और ऐसा होता रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो सरकारमें आस्था रखनेवाले मतदाता किसी भी परिस्थितिमें उसीके साथ रहते परन्तु ऐसा होता नहीं है। फिलहाल वाक् एवं अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रता संविधानकी धरोहर है और इसका संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय है। ऐसेमें कोई भी विचार जो संविधानकी मर्यादाके साथ मेल खाते हों उसे बनाये रखना सबकी जिम्मेदारी है। हालांकि इसकी रोकथाम भी संविधानके अनुच्छेद १९(२) में है। महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि यह एक मूल अधिकार है और इस मामलेमें अनुच्छेद ३२ के तहत सीधे सर्वोच्च न्यायालय जाया जा सकता है। फिलहाल सियासत और सरकारमें मौकापरस्तीका खेल खूब चलता है और ऐसे कानूनकी आड़में उपयोगके साथ दुरुपयोगका चलन भी रहा है। ऐसेमें चाहिए कि सरकार देश आगे बढ़ानेकी सोचे और नागरिक वाक् एवं अभिव्यक्तिकी मर्यादाको बनाये रखे।