सम्पादकीय

अभिव्यक्तिकी रक्षासे स्वस्थ लोकतंत्र


डा. श्रीनाथ सहाय    

देशके संविधानमें अनुच्छेदका दुरुपयोग राजनीतिक अस्त्रके रूपमें किया जाता है। बीते सप्ताह सुप्रीम कोर्टके दो फैसलोंमें सरकारोंके कामकाजकी आलोचना या टिप्पणी करनेके मीडियाके अधिकार रक्षाका स्वर मुखर हुआ। अदालतका मानना था कि तबतक मीडियाकर्मियोंकी राजद्रोहके प्रावधानोंसे रक्षा की जानी चाहिए जबतक कि किसीका हिंसाको उकसाने या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करनेका कोई इरादा न हो। एक वरिष्ठï पत्रकार द्वारा प्रधान मंत्रीके विरुद्ध की गयी टिप्पणीपर दर्ज राजद्रोहके मामलेको रद करते हुए अदालतने केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (१९६२) में दिये गये ऐतिहासिक फैसलेका हवाला देते हुए यह फैसला सुनाया कि यह आरोप तभी लग सकता है जब शब्दों अथवा अभिव्यक्तिमें हानिकारक प्रवृत्ति होती है या फिर सार्वजनिक व्यवस्था या कानून-व्यवस्थामें व्यवधान पैदा करनेकी मंशा हो। तभी आईपीसीकी धारा १२४ए यानी देशद्रोह और ५०५ यानी सार्वजनिक शरारतके आरोपोंमें कदम उठाया जा सकता है। शीर्ष अदालतने तेलुगु समाचार चैनलोंको भी उनके खिलाफ राज्य सरकार द्वारा दर्ज मामलोंसे संरक्षण प्रदान किया। इन चैनलोंपर राज्यके मुख्य मंत्रीकी आलोचना करनेपर राजद्रोहका मामला दर्ज किया गया था। इस मामलेमें शीर्ष अदालतने सटीक टिप्पणी की कि औपनिवेशिक युगके कानूनके दायरे और मापदंडोंकी व्याख्या करनेकी आवश्यकता है। खासकर इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडियाके अधिकारोंके बाबत, जो देशमें कहीं भी किसी भी सरकारसे संबंधित जनहितमें महत्वपूर्ण सामग्री प्रसारित-प्रकाशित कर सकते हैं।

पिछले साल कोरोना महामारीकी वजहसे किये गये लाकडाउनके दौरान केंद्र और पंजाब सरकारके निर्देशोंकी आलोचनाके लिए राजद्रोहके आरोपमें बंद एक व्यक्तिको रिहाईका आदेश देते हुए पंजाब और हरियाणा हाईकोर्टने कहा है कि राजद्रोह और धार्मिक मनमुटावसे जुड़े कानूनोंका इस्तेमाल करते हुए राज्यको ज्यादा सहिष्णु और सजग रहनेकी जरूरत है। खबरोंके मुताबिक छह महीनेसे जेलमें बंद एक अभियुक्तकी जमानत याचिकापर सुनवाई करते हुए पिछले दिनों कोर्टने यह कहा। जसबीर नामके उस व्यक्तिपर राष्टï्रकी एकता और अखंडताके विरुद्ध और धार्मिक वैमनस्य पैदा करनेवाले बयान देनेके आरोप लगे थे। जमानत देते हुए जस्टिस सुधीर मित्तलने कहा कि अभियुक्त लाकडाउनसे नाराज था और भारत सरकार और पंजाब सरकारने जिस तरह महामारीपर काबू पानेके लिए कदम उठाये उन्हें लेकर भी नाखुश था और उसने उक्त सरकारोंकी कार्यप्रणालीकी आलोचना की थी। जस्टिस मित्तलके कोर्टने माना कि सरकारोंके उच्च अधिकारियों और चुने हुए जन-प्रतिनिधियोंके प्रति अनर्गल और निंदात्मक भाषा जरूर इस्तेमाल की गयी लेकिन उसमें सरकारके प्रति नफरत या वैमनस्य भड़काने जैसी कोई बात नहीं है। इससे सामुदायिक सद्भाव बाधित नहीं हुआ और न ही धार्मिक मनमुटाव पैदा हुआ। जजके मुताबिक यह सरकारके कामकाजके तरीकोंपर असंतोष और उसकी नीतियोंकी आलोचनाकी अभिव्यक्ति है। कोर्टने कहा कि लोकतंत्रमें सरकारकी कार्यप्रणालीकी आलोचना करना या अपना मत प्रकट करना हर नागरिकका अधिकार है, हालांकि यह आलोचना सभ्य तरीकेसे की जानी चाहिए और असंसदीय भाषाका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।

पंजाब और हरियाणा हाईकोर्टकी तरह पहले भी अदालतें कई मौकोंपर और खुद सुप्रीम कोर्ट भी अपनी हिदायतों और आदेशोंके जरिये सरकारों और पुलिस प्रशासनको राजद्रोहके कानूनके अत्यधिक इस्तेमालको लेकर आगाह कर चुका है लेकिन देखनेमें आता है कि सरकारें अपनी आलोचनाको बर्दाश्त नहीं कर पाती और मौका मिलनेपर राजद्रोह कानूनका धड़ल्लेसे इस्तेमाल करनेसे नहीं चूकती। तमिलनाडुके कुडनकुलम एटमी संयंत्रका विरोध कर रहे किसान प्रदर्शनकारियोंके खिलाफ २०११ में राजद्रोहके ८८५६ मामले ठोक दिये गये थे। इंडियन एक्सप्रेसके पत्रकार अरुण जनार्दनकी सितंबर २०१६ में प्रकाशित एक विस्तृत रिपोर्टके मुताबिक तमिलनाडुका इदिनिथाकराई गांव तो राजद्रोह कानूनका ग्राउंड जीरो है, जहांके किसान आन्दोलनकारियोंपर सबसे ज्यादा राजद्रोह मामले दर्ज बताये गये हैं। रिपोर्टके मुताबिक जेल भले ही न हो लेकिन बड़ी तादादमें मामले किसानोंको डरानेके लिए भी रखे जाते हैं।

राष्टï्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक २०१४ से २०१८ के बीच २३३ लोगोंपर इस कानूनका इस्तेमाल किया जा चुका है। सबसे ज्यादा ३७ लोग असम और ३७ झारखंडमें गिरफ्तार किये गये हैं। २०१८ में ७०, २०१७ में ५१, २०१६ में ३५, २०१५ में ३० और २०१४ में ४७ लोग इस भीषण कानूनकी चपेटमें आ चुके है। एनसीआरबीने २०१४ से राजद्रोहके मामलोंपर आंकड़े जुटाना शुरू किया है। लेकिन इनसे यह भी पता चलता है कि राजद्रोहके आरोपोंमें सिर्फ गिनतीके मामलोंमें ही अदालतोंमें दोष सिद्ध हो पाया है। २०१६ में सिर्फ चार मामले ही अदालतोंमें ठहर पाये। भारतीय दंड संहिताकी धारा १२४ए के तहत ब्रिटिश दौरमें बनाया राजद्रोह कानून अभीतक चला आ रहा है। जबकि खुद ब्रिटेन अपने विधि आयोगकी सिफारिशके बाद २०१० में इस कानूनसे मुक्ति पा चुका है। ऐसा भी नहीं है कि शीर्ष अदालतने सत्ताधीशों द्वारा राजद्रोह कानूनके दुरुपयोगकी बाबत पहली बार टिप्पणी की हो। गाहे-बगाहे सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालय वर्ष १९६२ के फैसलेके आलोकमें इसे परिभाषित करनेका प्रयास करते रहे हैं कि राष्टï्रद्रोहके क्या मायने हैं और इसकी सीमाएं क्या हैं। इसके अंतर्गत नागरिकोंकी अभिव्यक्तिकी आजादी और स्वतंत्रताको संयमित करनेके लिए बने कानूनोंके दुरुपयोगको रोकनेपर गंभीरतासे ध्यान देनेपर बल दिया गया। निस्संदेह नागरिकोंको अपनी चुनी हुई सरकारकी आलोचना करनेका अधिकार है। आलोचनासे सरकारोंको आत्ममंथनका मौका मिलता है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष २०१९ में दर्ज राजद्रोहके मुकदमोंमें सजाका प्रतिशत मात्र तीन था। सुप्रीम कोर्टके हालिया फैसलोंके बाद मीडियाकर्मियोंको निर्भय होकर काम करनेका अवसर मिलेगा। साथ ही उम्मीद है कि सत्ताधीशोंको आईना दिखानेके बाद बात-बातमें राजद्रोहके मामले दर्ज करके डरानेकी प्रवृत्ति घटेगी। एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्थाके लिए अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रता सबसे खास पहलू है। उम्मीद है सरकारें कोर्टके निर्णयके मुताबिक आनेवाले समयमें व्यवहार करेंगी।