जी. पार्थसारथी
नि:संदेह शांति और सुरक्षा भारत-पाकिस्तानके लिए मुख्य चिंताका विषय रहे हैं। ४ जुलाई, २००४ जिस दिन दक्षेस सम्मेलनमें भाग लेनेके लिए प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी इस्लामाबादमें थे तो उन्होंने पाकिस्तानके राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफके साथ संयुक्त घोषणापत्र जारी किया था, इसमें कहा गया था, राष्ट्रपति मुशर्रफने प्रधान मंत्री वाजपेयीको विश्वास दिलाया है कि पाकिस्तानके अधिकार क्षेत्रमें आती भूमिको किसी भी तरहके आतंकवादको समर्थन देनेके लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया जायगा। तत्पश्चात दोनों नेता समग्र वार्ता फिरसे शुरू करनेपर राजी हुए थे, इस उम्मीदके साथ कि जम्मू-कश्मीर समेत तमाम आपसी मुद्दोंका निबटारा दोनों पक्षोंकी तसल्लीके मुताबिक हो पायगा। इसी तरह प्रधान मंत्री मनमोहन सिंहने २४ मार्च, २००६ को अमृतसरमें दिये भाषणमें पाकिस्तानके साथ मतभेद सुलझानेकी दिशामें जम्मू-कश्मीरपर भारतके नजरियेका संकेत देते हुए इस बातपर जोर दिया था कि जहां कहीं सीमा रेखाको फिरसे खींचना संभव न हो, वहां उन्हें अप्रासंगिक बना दिया जाय। उन्होंने आगे कहा कि हालात ऐसे होने चाहिए कि वास्तविक नियंत्रण रेखाके दोनों ओरके लोग बेरोकटोक व्यापार और यात्रा कर पायें। इसके जवाबमें राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफने जम्मू-कश्मीरको सेना रहित क्षेत्र और स्व-शासित प्रदेश बनानेकी बात कही थी। बताया जाता है कि आतंकवाद रहित हालात बननेपर, पर्देके पीछे चली लंबी वार्ताके बाद दोनों पक्ष जम्मू-कश्मीरकी समस्यापर ध्यान देने और सुलझानेके लिए खाका बनानेपर सहमत हो गये थे। लेकिन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफका अपने साथियोंके दबावमें आना पाकिस्तान द्वारा अपनी बातसे पीछे हटनेका कारण बना था। असहमति दिखानेवालोंमें मुशर्रफके बाद सेनाध्यक्ष बने अशरफ परवेज कियानी भी एक थे, जो भारतके साथ इस तरहका समझौता बनानेके खिलाफ थे। इधर प्रधान मंत्री मनमोहन सिंहका ज्यादा ध्यान भारत-अमेरिकी परमाणु संधिको संसदसे अनुमोदित करवानेपर हो गया था। इस तरह पर्देके पीछे चलनेवाली वार्ताको रोक दिया गया था। यह बात पक्की है कि घटनाक्रमकी जानकारी अमेरिकाको लगातार मुहैया करवायी जाती थी। इसका बातका न्यू यॉर्कर टाइम्समें २ मार्च, २००९ को छपे लेखसे पता चलता है, जिसमें पर्देके पीछे क्या बातें हुई थीं, उसका खुलासा था। हालांकि मौजूदा परराष्टï्रमंत्री एस. जयशंकर और विदेश सचिव हर्षवर्धन शिंगला, जो अक्सर मीडियामें आनेसे बचते हैं, किंतु एक समर्थ कूटनीतिज्ञ हैं, जब अपनी भावी नीतियां बनायंगे तो बिना शक उन बातोंका ध्यान रखेंगे जो विगतमें हो गुजरी हैं। हालांकि इस बातकी कोई गारंटी नहीं कि पाकिस्तान अपने तत्कालीन रुखपर कायम रहेगा। दूसरी ओर स्वाभाविक है कि मोदी प्रशासन मौजूदा जटिलताओंके परिप्रेक्ष्यमें नये घटनाक्रमपर सावधानीसे फूंककर कदम बढ़ायगा। परंतु पर्देके पीछे वाली वार्ता भावी संवादके लिए उपयोगी कदम होगा।
यह भी पक्का है कि बाइडेन प्रशासनको किसी ऐसे घटनाक्रमके बारेमें इल्म होगा। अमेरिकाको अहसास है कि हिंद-प्रशांत महासागर क्षेत्रमें शक्ति-संतुलन बनानेमें भारतका स्थान महत्वपूर्ण है। बदलेमें भारतको याद रखना होगा कि चीनकी नीति कम लागतमें भारतकी घेराबंदी करनेकी है। कोई हैरानी नहीं कि बाइडेन प्रशासन पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्पकी अफगानिस्तानसे जल्दबाजीमें निकलनेकी नीतिपर पुनर्विचार कर रहा है। पाकिस्तानकी अपेक्षाओंसे उलट बाइडेन प्रशासनने चीनको भू-राजनीतिक चुनौती देनेमें व्यापार और अन्य प्रतिबंध कायम रखते हुए उम्मीदसे ज्यादा कड़ा रुख अख्तियार कर लिया है। चीन और पाकिस्तानको उम्मीद थी कि एक बार काबुलमें तालिबान सरकार बैठा दिये जानेके बाद अफगानिस्तानके अकूत प्राकृतिक स्रोतोंका दोहन करनेमें उनको स्वाभाविक तौरपर तरजीह मिलती परंतु बाइडेन प्रशासनने निकट भविष्यमें अफगानिस्तानसे अमेरिकी पलायनकी संभावनापर ठंडा पानी डाल दिया है। इसके पीछे मुख्य कारण यह लगता है कि पश्चिमी शक्तियां नहीं चाहतीं कि अफगानिस्तानके विशाल खनिज भंडारण, जिसमें सोना, प्लैटिनम, चांदी, लीथियम, यूरेनियम, एल्यूमिनियम, कीमती पत्थर और दुलर्भ भू-खनिज पदार्थ इत्यादि हैं, उनका दोहन लालची चीन आसानीसे कर पाये।
बेल्ट एंड रोड परियोजनाके लिए उठाये चीनी कर्जका भुगतान करनेमें पाकिस्तानको खासी दिक्कत हो रही है, इसका संकेत इस बातसे पता चलता है कि पाकिस्तानने चीनको कहा है कि ऊर्जा क्षेत्रके लिए ऋणकी किश्तें चुकानेकी समयसारिणीमें फेरदबल किया जाय। पाकिस्तानको कर्ज न चुका पानेकी सूरतमें अपने खनिज स्रोत, खदानें और बंदरगाह चीनी संस्थानोंके हवाले करने पड़ेंगे। खनिज संपन्न गिलगित-बलूचिस्तान क्षेत्रके कुछ हिस्से इन दिनों चीनके नियंत्रणमें हैं, इसके अलावा सामरिक महत्ववाले ग्वादर बंदरगाहपर चीनी पकड़ लगातार बढ़ती जा रही है। जल्द ही सिंध प्रांतकी दो बंदरगाहोंपर भी उसका नियंत्रण बन जायगा। दोनों मुल्कोंकी राजधानियोंमें राजदूतोंकी अनुपस्थितिमें पाकिस्तानके साथ रिश्ते सामान्य करनेके लिए वार्ताका दौर बेमानी होगा। संवाद बनानेसे पहले हमें इस्लामाबादमें अपने राजदूतकी उपस्थिति बनानी होगी।
साथ ही दोनों मुल्कोंके बीच व्यापार एवं आर्थिक संबंध सामान्य बनाये जायं। प्रधान मंत्री वाजपेयीने हुक्म दिया था कि कारगिल युद्धके दौरान भी पाकिस्तानतक आने-जानेवाली रेल और बस सेवाको बहाल रखा जाय। क्या अब हमें इन्हें लागू करनेपर ध्यान नहीं देना चाहिए। आजकी तारीखमें प्रधान मंत्री इमरान बस दिखावेके राष्ट्राध्यक्ष हैं। अमेरिका, सऊदी अरब, भारत, तुर्की, ईरान और चीनके साथ रिश्ते रखनेवाली विदेश नीति सेनाके हाथमें है। इसलिए ज्यादा समझदारी इसीमें है कि प्रधान मंत्री इमरानके साथ छोटे-मोटे मुद्दोंपर बातचीतपर बहुत अधिक व्यर्थ करनेकी बजाय पर्देके पीछेवाला राब्ता सेनाध्यक्ष बाजवासे कायम किया जाय। जनरल बाजवाने घरेलू नीतियोंमें भुट्टो परिवार समेत अन्य राजनीतिक हस्तियोंसे अपना राब्ता बना रखा है। लगता है युवा बिलावल भुट्टोको उसी सेनाके साथ हाथ मिलानेमें कोई गुरेज नहीं है, जिसने उसके नानाको फांसीपर चढ़ा दिया था।