आरक्षणकी सीमाको लेकर शीर्ष न्यायालयका गम्भीर होना उचित और प्रासंगिक है। आजके दौरमें वोटकी राजनीतिने आरक्षणको ब्रह्मास्त्र बना दिया है, जो गम्भीर चिन्ता और चिन्तनका विषय है। भारतीय संविधानमें अधिकतम ५० प्रतिशत आरक्षणका प्रावधान किया गया है लेकिन विगत कुछ वर्षोंमें कुछ राज्योंने ५० प्रतिशतसे अधिक आरक्षण देनेकी कोशिश की, जिससे भ्रमकी स्थिति उत्पन्न हो गयी है। छत्तीसगढ़में सर्वाधिक ८२ फीसदी आरक्षण है, जबकि तमिलनाडुमें ६९, तेलंगानामें ६२, झारखण्डमें ६० फीसदी आरक्षण है। इसी प्रकार राजस्थानमें ५४ तथा उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेशमें ५०-५० प्रतिशत है। पश्चिम बंगालमें सबसे कम ३५ प्रतिशत तो अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नगालैण्ड और मिजोरममें ८० प्रतिशत आरक्षणकी व्यवस्था है, जिससे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या किसी राज्यको ५० प्रतिशतसे अधिक आरक्षण देनेकी अनुमति दी जा सकती है? शीर्ष न्यायालयके न्यायमूर्ति अशोक भूषणके पांच सदस्यीय संविधान पीठने मराठा आरक्षणकी वैधताको चुनौती देनेवाली याचिकाओंपर सुनवाईके दौरान पूछा कि क्या केन्द्र और राज्य सरकारें शिक्षण संस्थाओं और नौकरियोंमें ५० प्रतिशतसे अधिक आरक्षण दे सकती हैं। संविधान पीठका मानना है कि यह मात्र एक राज्यतक सीमित नहीं है, इसलिए अन्य राज्योंका भी सुनना महत्वपूर्ण होगा। पीठका यह तर्क सही है क्योंकि इस मामलेमें उसके निर्णयका व्यापक प्रभाव पड़ेगा। आरक्षणके मुद्देपर सरकारोंकी मनमानी सवर्ण प्रतिभावानोंके अधिकारपर कुठाराघात है। लोकतन्त्रमें सबके विकासका अवसर है। किसी जाति, वर्ग विशेषको पीढ़ी-दर-पीढ़ी आरक्षण मिलता रहे यह उचित नहीं। आर्थिक रूपसे सम्पन्न आयकरदाताओंके परिजनोंको आरक्षणका लाभ देनेके लिए सामान्य वर्गके लोगोंकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। आरक्षण दलितों, पिछड़ोंके जीवनस्तरमें सुधारका माध्यम है। पात्रोंको इसका लाभ मिलना भी चाहिए। आरक्षणके लिए जातिके साथ ही आर्थिक आधारपर विचार होना चाहिए। आरक्षण सीमा क्या हो इसके लिए सभी पहलुओंपर विचार करनेकी जरूरत है। शीर्ष न्यायालयने इस सम्बन्धमें राज्योंसे सुझाव मांगे हैं, जिसका तर्कसंगत और न्यायसंगत जवाब होना चाहिए।
म्यांमारके बिगड़ते हालात
म्यांमारमें तख्तापलटके बाद सैन्य शासनके विरोधमें लोकतंत्र समर्थक जनताका भारी विरोध-प्रदर्शन और उसके दमनके लिए उठाये गये हिंसक कदमोंसे वहांकी स्थिति निरन्तर खराब होती जा रही है। प्रदर्शनकारियोंपर पुलिसकी फायरिंगसे अबतक ५० लोगोंकी मृत्यु हो चुकी है और बड़ी संख्यामें आन्दोलनकारी घायल हो गये हैं। इस दक्षिण पूर्व एशियाई देशमें विगत एक फरवरीको हुए तख्तापलटके बाद उत्पन्न स्थिति पूरी दुनियाके लिए गम्भीर चिन्ताका विषय बन गयी है। सेनाने म्यांमारके पांच अस्पतालोंको अपने कब्जेमें ले लिया है। विश्वविद्यालयोंमें भी सेनाकी तैनाती कर दी गयी है। यंगूनमें दुकानें, कारखाने और बैंक पूरी तरहसे बंद हैं जिससे आम जनताकी दिक्कतें बढ़ गयी हैं। म्यांमारमें तख्तापलटकी घटनाके पीछे चीनका मुख्य रूपसे हाथ रहा है। लोकतन्त्र समर्थक देशोंके लिए यह बड़ी चुनौती है। म्यांमारमें सैन्य शासनपर प्रतिबन्धके लिए वैश्विक दबाव बढ़ा है जो उचित है। आस्ट्रेलियाने तो म्यांमारसे रक्षा सहयोग ही समाप्त कर दिया है। अन्य देशोंको प्रतिबन्धात्मक कदम आगे बढ़ानेकी जरूरत है जिससे कि उसपर दबाव और बढ़ सके। म्यांमारमें मानवाधिकारोंका उल्लंघन हो रहा है। ऐसी स्थितिमें अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओंको यथाशीघ्र हस्तक्षेप करनेकी जरूरत है। म्यांमारकी निरन्तर खराब होती स्थिति भारतके लिए चिन्ताजनक है। भारत स्थितिपर पूरी तरहसे नजर रखे हुए है। म्यांमारमें लोकतन्त्रकी बहाली और सैन्य शासनकी समाप्तिके लिए विश्वस्तरपर एकजुट प्रयास करनेकी आवश्यकता है। आम जनताका जिस प्रकारसे दमन हो रहा है, वह निन्दनीय और दुर्भाग्यपूर्ण है। सैन्य शासनपर वैश्विक निन्दाका कोई असर नहीं पड़ रहा है। इसलिए कुछ देशोंने म्यांमारको दी जानेवाली सहायतापर भी रोक लगाकर अच्छा कदम उठाया है। विश्व बैंकने वित्तपोषण रोक दिया है और सहायता कार्यक्रमोंकी समीक्षा की जा रही है। अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडाने सैन्य सरकारके अन्य वरिष्ठï नेताओंपर प्रतिबन्ध और कड़ा कर दिया है, जिससे कि उसे सबक दी जा सके। सैन्य शासनके खिलाफ वैश्विक अभियानमें और तेजी लानेकी जरूरत है।