श्रीराम शर्मा
सरसता हृदयका शृंगार, ईश्वरका वरदान है। सहृदय मानवको ईश्वरीय गुणों से लबालब होते देखा गया है। सरस बनिएए सरसताका अभिप्राय कोमलता, मधुरता, आद्रता है। सहृदय व्यक्तिपर दु:खकातर होता है। दूसरोंके दु:खोंको बंटानेमें वह ईश्वरीय आनन्दका अनुभव करता है, जिनके हृदय नीरस हैं, वह स्वयं और परिवारको ही नहीं अपने संपर्कमें आनेवाले हर प्राणीको दु:ख प्रदान करते हैं। रसकी वर्षा सूखी धरतीको भी हरियालीसे भर देती है, फिर स्नेह जलसे सींचे गये प्राणी आनन्दसे सराबोर क्यों नहीं हो सकते। गुरुदेव कहते हैं, जिसने अपनी विचारधाराओं और भावनाओंको शुष्क, नीरस और कठोर बना रखा है, उसने अपने आनन्द, प्रफुल्लता और प्रसन्नताके भंडारको बंद कर रखा है। वह जीवनका सच्चा रस प्राप्त करनेसे वंचित रहेगा, आनंद स्रोत सरसताकी अनुभूतियोंमें है। परमात्माको आनन्दमय बताया गया है। श्रुति कहती है, रसो वै स: अर्थात्ï परमात्मा रसमय है। वह अपनी सरसतासे सृष्टिका सिंचन करता है। हमारा भी यह स्वभाव बने कि हम अपने सरस आचार-विचार और व्यवहारसे सृष्टिके इस उपवनको सिंचित कर उसे आनन्द प्रदान कर सकें। रस रूप परमात्माको इस विशाल परिवारमें प्रतिष्ठित करनेके लिए लचीली, कोमल, स्निग्ध और सरस भावनाएं विकसित करनी चाहिए। हमारा परिवार हमारी प्रथम कार्यस्थली है। यहींसे सरसताका बीजारोपण करें। बाल, वृद्ध, युवा परिजनोंको स्नेहकी डोरीमें बांध सबके जीवनको आनन्दमय बनायें एवं स्वयं परमात्माके उस अद्भुत गुणकी लहरोंसे स्वयं भी आनन्दित हों। नट अपने आंगनमें कला खेलना सीखता है, आप हम अपने परिवारमें प्रेमकी साधना आरंभ करें। शिक्षा और दीक्षासे प्रियजनोंके अंत:करणोंमें ज्ञान ज्योति प्रज्ज्वलित करें, उन्हें सत-असतका विवेक प्राप्त करनेमें मदद करें, किंतु अहंकारका त्याग कर विनम्र भावसे कुटुंबीजनोंके हृदयस्थलका सिंचन करें। माली अपने ऊपर जिस बागीचेकी जिम्मेदारी लेता है, उसे हरा-भरा बनानेके लिए जी-जानसे प्रयत्न करता है, यही दृष्टिकोण एक सहृदयस्थका होना चाहिए। यही कर्तव्य हमारा समस्त समाज एवं समस्त जगतके प्रति होना चाहिए। सत्यनिष्ठा, सद्गुणोंके प्रति रुचि, श्रमशीलता और स्वच्छता इन चार बहुमूल्य हीरोंको यदि हम सरसताकी चाशनीमें डुबोकर परिवार, समाज और विश्वके समक्ष परोसेंगे तो उनके आनन्द, उनकी स्वीकार्यता अनेक गुना बढ़ जायगी। जिस प्रकार लकडिय़ोंका बोझ रस्सीसे बांधकर सुविधापूर्वक कोसों दूरतक ले जाया जा सकता है, उसी प्रकार आत्मीयताकी डोरसे बंधा परिवार एवं समाज उन्नतिके पथपर सुविधापूर्वक जा सकता है तथा सुसंघटित रह सकता है। परिवार एवं समाजमें सरसता विकसित करते समय हमें विवेकको नहीं भुलाना चाहिए। हमारा सरस व्यवहार कहीं मोह न बन जाय। निरंकुशता व्यक्तिको ही नहीं परिवार, समाज एवं सृष्टिको भी तहस-नहस कर डालती है।