सम्पादकीय

ऋषि परम्परा


हेमन्त रिछारिया

सनातन धर्ममें गोत्रका बहुत महत्व है। गोत्रका शाब्दिक अर्थ तो बहुत व्यापक है। विद्वानोंने समय-समयपर इसकी यथोचित व्याख्या भी की है। गो अर्थात् इन्द्रियां, वहीं त्र से आशय है, रक्षा करना, अत: गोत्रका एक अर्थ इन्द्रिय आघातसे रक्षा करनेवाले भी होता है जिसका स्पष्ट संकेत ऋषिकी ओर है। सामान्यत: गोत्रको ऋषि परम्परासे संबंधित माना गया है। ब्राह्मणोंके लिए तो गोत्र विशेष रूपसे महत्वपूर्ण है क्योंकि ब्राह्मïण ऋषियोंकी संतान माने जाते हैं। अत: प्रत्येक ब्राह्मïणका संबंध एक ऋषिकुलसे होता है। प्राचीनकालमें चार ऋषियोंके नामसे गोत्र परंपरा प्रारंभ हुई। यह ऋषि हैं, अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भगु हैं। कुछ समय उपरान्त जमदग्नि, अत्रि, विश्वामित्र और अगस्त्य भी इसमें जुड़ गये। व्यावहारिक रूपमें गोत्रसे आशय पहचानसे है। जो ब्राह्मïणोंके लिए उनके ऋषिकुलसे होती है। कालान्तरमें जब वर्ण व्यवस्थाने जाति-व्यवस्थाका रूप ले लिया तब यह पहचान स्थान एवं कर्मके साथ भी संबंधित हो गयी। यही कारण है कि ब्राह्मïणोंके अतिरिक्त अन्य वर्गोंके गोत्र अधिकांश उनके उद्गम स्थान या कर्मक्षेत्रसे संबंधित होते हैं। गोत्रके पीछे मुख्य भाव एकत्रीकरणका है किन्तु वर्तमान समयमें आपसी प्रेम एवं सौहार्दकी कमीके कारण गोत्रका महत्व भी धीरे-धीरे कम होकर केवल कर्मकाण्डी औपचारिकतातक ही सीमित रह गया है। ब्राह्मïणोंमें जब किसीको अपने गोत्रका ज्ञान नहीं होता तब वह कश्यप गोत्रका उच्चारण करता है। ऐसा इसलिए होता क्योंकि कश्यप ऋषिके एकसे अधिक विवाह हुए थे और उनके अनेक पुत्र थे। अनेक पुत्र होनेके कारण ही ऐसे ब्राह्मïणोंको जिन्हें अपने गोत्रका पता नहीं है कश्यप ऋषिके ऋषिकुलसे संबंधित मान लिया जाता है।