सम्पादकीय

किसानोंसे वार्ताकी उम्मीद


पूर्व प्रधान मंत्री चौधरी चरण सिंहकी जयन्तीपर बुधवारको आन्दोलनकारी किसानोंने प्रदर्शनके २८वें दिन उपवास भी रखा। नये कृषि कानूनोंके खिलाफ देशभरमें एक समयका खाना नहीं खानेकी अपीलका कुछ प्रभाव तो अवश्य देखनेको मिला और आन्दोलनको तेज धार देनेकी रणनीति भी बनी लेकिन एक अच्छा संकेत यह भी मिला कि आन्दोलनकारी किसान संघटन अब सरकारसे वार्ता करनेपर गम्भीरतासे विचार कर रहे हैं। इसके लिए किसानोंने पांच सदस्यीय एक समिति भी बनायी है। दूसरी ओर बुधवारको केन्द्रीय मंत्रिमण्डलकी बैठकमें किसानोंके आन्दोलनपर चर्चा हुई। केन्द्रीय कृषिमंत्री नरेन्द्र सिंह तोमरने मंगलवारको कहा था कि किसानोंसे शीघ्र वार्ताकी उम्मीद बढ़ी है। केन्द्र सरकारने वार्ताका प्रस्ताव पहले ही दे दिया है। किसान संघटन कृषि कानूनोंको रद करनेकी मांगपर अड़े हुए हैं और केन्द्र सरकार नये कृषि कानूनोंमें संशोधनके लिए तैयार है। किसान संघटनोंके साथ वार्ता ही एक विकल्प है जिससे किसी समाधानतक पहुंचा जा सकता है। वार्ताके लिए मानसिकता भी सकारात्मक होनी चाहिए। इसके पहले छह दौरकी वार्ता हो चुकी है लेकिन कोई परिणाम सामने नहीं आया। आन्दोलनको लम्बे समयतक चलाना उचित प्रतीत नहीं होता है। कोरोना संकटके अतिरिक्त ठण्डका मौसम भी घातक साबित हो सकता है। कई किसानोंकी मृत्यु भी हो चुकी है। इसलिए समाधानकी दिशामें किसान संघटनों और सरकार दोनोंको आगे बढऩेकी जरूरत है। अडिय़ल रवैयेको छोड़कर सकारात्मक सोचके साथ वार्तासे ही समाधान निकल सकता है। वैसे भी सरकार किसानोंकी आपत्तियोंपर संवेदनशीलताके साथ विचार करने और निर्णयपर पहुंचनेके लिए तैयार है। लेकिन कुछ राजनीतिक दल अवसरका लाभ उठानेके प्रयासमें लगे हुए हैं जिसका सीधा सम्बन्ध वोट बैंकी राजनीतिसे है। किसानोंके आन्दोलनमें दूसरे देशोंका अनावश्यक हस्तक्षेप पूरी तरहसे अनुचित और अमर्यादित है। किसान और उनका आन्दोलन देशका आन्तरिक विषय है। इसमें किसी दूसरे देशका हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। इसके अतिरिक्त कुछ लोग भ्रम फैलानेकी रणनीतिमें सक्रिय हैं। किसानोंका हित सर्वोपरि है और उनके हितोंकी रक्षा भी अनिवार्यत: होनी चाहिए। नये कृषि कानूनोंमें ऐसे अनेक प्रावधान हैं जिनमें किसानोंके हित निहित हैं। यदि कुछ प्रावधान छूट गये हैं या किसानोंके हितमें नये प्रावधान जोडऩेकी जरूरत है तो उसपर अमल होना चाहिए।
राहतकारी फैसला
सर्वोच्च न्यायालयने घर खरीददार उपभोक्ताओंको मुआवजेका अधिकारी बनाकर बिल्डरोंकी मनमानीपर अंकुश लगानेकी दिशामें महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। सर्वोच्च न्यायालयने कहा है कि बिल्डरसे पैसे वापस लेनेके बाद भी फ्लैट खरीददार मुआवजेका हकदार है। फ्लैटकी डिलीवरीमें विलम्बके मामलेमें राष्टï्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोगने वापस की गयी राशिपर सात फीसदी ब्याज मुआवजेके रूपमें उपभोक्ताओंको देनेका आदेश दिया था जिसको बिल्डरकी ओरसे सर्वोच्च न्यायालयमें चुनौती दी गयी थी, जिसपर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़, इंदू मल्होत्रा और इंदिरा बनर्जीकी पीठने कहा है जो खरीददार लगातार खरीद समझौतेका पालन करता रहा है, उससे बिल्डर यह नहीं कह सकता कि वह फ्लैट मिलनेमें देरीपर मुआवजेका दावा छोड़ दे। पीठने कहा कि ये वास्तविक खरीददार थे, जिन्हें अपने परिवारके सिरपर छत चाहिए थी। यह निवेशक या फाइनेंसर नहीं थे। इसे देनेमें विफल रहना वास्तवमें सेवामें कोताही है, इसलिए उन्हें मुआवजा मिलना ही चाहिए। हालांकि सर्वोच्च न्यायालयने उपभोक्ता आयोगके तय सात फीसदी मुआवजेकी सालाना दरको घटाकर छह फीसदी कर दिया है और आयोगके आदेशको भी रद कर दिया है जिसमें बिल्डरको पार्किंग और क्लब चार्जकी रकम ब्याज सहित वापस करनेको कहा गया था। सर्वोच्च न्यायालयके इस कदमसे बिल्डरोंकी मनमानीपर अंकुश लगेगा और वह तय समय-सीमाके भीतर घर खरीददार उपभोक्ताओंको घर उपलब्ध करानेका काम करेंगे जिससे घर खरीदनेके इच्छुक लोगोंको बड़ी राहत मिलेगी, क्योंकि बिल्डर परियोजना बनाते ही लोगोंसे पैसा ले लेते हैं और उन्हें मानक और समय-सीमाके भीतर घर उपलब्ध नहीं कराते हैं। यह उपभोक्ताओंका शोषण है जिसे सर्वोच्च न्यायालयने अनुचित मानते हुए घर खरीददारोंके पक्षमें राहतकारी निर्णय सुनाया है। सर्वोच्च न्यायालयका निर्णय उचित और स्वागतयोग्य है। इस फैसलेका क्रियान्वयन अवश्य होना चाहिए।